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________________ कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ ] चाणक्य और उसका धर्म पाठकोंने ऊपर पदभी लियाहै कि चाणक्यने चिन्तासे भी क्या काम ? अब तो समाधि मरण चन्द्रगुप्तका भी जैन बनाया था। आगे चन्द्रगुप्तके से अपना परलोक सुधारूँगा" पुत्र बिन्दुसारको भी चाणक्यने उनके पिताके । इसके बाद चाणक्य मंत्रीश्वरने मृत्युकी समान जैनधर्मका उपामक बनायाथा। मंत्रीश्वर । तैयारीकी । और जैनधर्मके नियमानुमार सब चाणक्य जैन था, किन्तु सामान्य जैन नहीं, जीवोंके साथमें क्षमायाचना करके, खानपीनादि दृढ़ताके साथ पक्का जैनधर्मका उपासक था सब छोड़ करके, माधु जैसी त्याग दशा स्वीकार परम पाहतांपासक एवं परम श्रमणोपासक था। करके तथा जीवन से भी निस्पृह बनकर अनशन इसका प्रबल प्रमाण उनको मृत्युको घटनासे स्वीकार किया। प्रत्यक्ष मिलता है। परिशिष्ठ पर्वमें आचार्य श्री हेमचन्द्र जी इस सम्राट् चन्द्रगुप्तको मृत्युके बाद उनका पुत्र विषयमें लिखते हैं कि-"चाणक्यने दीन-दुःम्वी बिन्दुमार भारतका सम्राट् बना। चाणक्य उनका अर्थी जनाको दान देना शुरू कर दिया। जितना भी मंत्री हुआ, और जैस मम्राट चन्द्रगुप्त चाणक्य नकद माल था उस सबको दान करके चाणक्यने की बुद्धि अनुमार गज्य-कार्य संचालन करतेथे नगरकं बाहर समीपगं ही सूखे प्रारनों के ढेर पर और धर्मका पालन करतथे वैसे ही बिन्दुमार भी बैठकर कर्मनिर्जग लिये चतुर्विधि श्राहारका चाणक्यकी श्राज्ञा का पालन करता था। किन्तु त्याग कर अनशन धारण कर लिया। बिन्दुमार नीति शास्त्रका यह वाक्य ठीक है। "गजा मित्रं न को जब अपनी धायमातास अपनी मानाको मृत्यु कम्यचित" कुछ ममय बाद ऐमा बना कि सुबन्धु का यथार्थ पना मिला तब वह पश्चाताप करता नामका एक दुमग मंत्रा, जिसे चाणक्यने ही हुआ वहाँ पाया जहाँ पर 'चाणक्य' ध्यानारूढ़ इस महत्वपूर्ण स्थानपर बैठायाथा, चाणक्य की था। उसने चाणक्यसं माफी मांगते हुए कहा :हटानक लिए षड्यन्त्र रचने लगा। भाला राजा इसमें फंस गया और अपने पिता तुल्य मंत्रीश्वर "मेरी भूल पर आप कुछ ख्याल न करके मेरे चाणक्य के प्रति उसका बहम होगया, और उसने गज्यकी मारमंभाल पूर्ववत ही करो । मैं आपकी उनकी श्रवज्ञा का भाव प्रदर्शित किया । महानीनि प्राज्ञाका पालन करूंगा"। चाणक्य बोलाविशारद चाणक्यको भाग मामला ममझने देर "गजन ! इस वक्त ना मैं अपने शरीर पर भी न लगी। प्राविरमें उन्होंने मानाकि -"मैंन ही निस्पृह है अब मुझे आपसे क्या और आपके तो इम दुष्टको इम इस पद पर प्रारूद किया और गज्यस क्या "? जैसे समुद्र अपनी मर्यादामं दृढ़ उसने मेरे उस उपकारका यह बदला दिया ? रहता है वैसही चाणक्यका उमकी प्रनिझाम खैर, इसके कुलकं उचित यही बदला युक्त था। निश्चल देखकर 'बिन्दुमार' निगश होकर अपने अब थोड़े दिनकी जिन्दगी रही है, मुझ राज्य- घर चला आया "
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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