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________________ वर्ष २ किरण ३] क्या सिद्धान्तग्रन्थों के अनुसार सब ही मनुष्य उच्चगोत्री हैं ? २०५ याजन, अध्ययन, अध्यापन आदि धर्माचरणमें यदि उन्हें म्लेच्छ ही बतलाना था तो आर्यके भेदों संलग्न रहते हैं, ऐसे अव्रती, देशव्रती और महा- में कार्य भंद रखनेकी क्या आवश्यकता थी। नी कर्म-आर्य हैं। जो उत्कृष्ट चरित्रका पालन तथा ऐसी अवस्थामें भारतवर्षके किसी भी खण्ड करते हैं वे चारित्र-आर्य हैं और सम्याट दर्शन- को म्लेच्छखण्ड कहना ही अज्ञानता है; क्योंकि आर्य हैं । लेखकमहोदयका कहना है कि-"असि जब वे सभी प्रार्य हैं और इसीलिए उचगांत्री भी ममि आदि कर्म क्षेत्र-आर्य और जाति-आर्य है, तो फिर बेचारोंको इस बेहूद नामसं पुकारने ना करते ही हैं, तब ये कर्म आर्य म्लेच्छ खण्डोंमें की वजह ही क्या है ? आर्योंकी तरह ही वे सब सकल रहनेवाले म्लेच्छ ही हो सकते हैं, जो आर्योके संयम धारण कर सकते हैं, उन्हींकी तरह कृषि ग्यमान उपयुक्तकर्म करने लगे हैं, इमीस कर्म आर्य आदि कार्य करके अपना उदरपोपण करते हैं कहलाते हैं। ये कर्म-आर्य श्रीविद्यानन्दके मतानुसार और सभी उच्च गात्री भी हैं । विदानन्द म्लेच्छोंके उञ्चगोत्री हैं, क्योंकि विद्यानन्दजीने पार्योक उच्च- नीचगांत्रका उदय बनलाते हैं और म्लेच्छ गोत्र का उदय बतलाया है। इस प्रकार विद्यानन्द र विद्यानन्द- पण्डोद्भवलेच्छोंको म्लेकर बतलाते हैं, फिर भी म्वामीके मनानमार भी यही परिणाम निकलता उनके मतसं मभी मनुष्य उच्चगोत्री सिद्ध हो जाते है कि अन्तरद्वीपजोंके मिवाय सभी मनुष्य उच्च हैं, यह एक अजीव पहेली है। अमल में लेखक गोत्री हैं।" यहाँ यह बतलादना जरूरी है कि महोदयको पहले की ही तरह गहरा भ्रम हो गया स्वामी विद्यानन्दने मलेच्छोंके अन्त:पज और कर्म है और उसका एक कारण कार्यकी समस्याको भूमिज इस प्रकार दो भेद किए हैं और यवन न सुलझा सकना भी ज्ञात होता है । अत: उनके आदिको कर्मभूमिज म्लेच्छ बनलाया है। नथा इसभ्रमको दूर करने के लिए इस समस्याको लग्बक महोदयने स्वयं इम बानको लिया है कि मुलझाना आवश्यकप्रतीत होता है। श्रीविद्यानन्द आचार्यने यवनादिकको म्लेच्छखण्डोद्भव म्लेच्छ माना है। इसपर लेग्यकमहोदय कार्य कौन हैं ? से मंग नम्र प्रश्न है कि यदि म्लेच्छग्यण्डोंमें उत्पन्न हुए म्लेच्छ ही कार्य हैं तो विद्यानन्द. मैं उपर बतला पाया है कि प्राचार्योंने आर्य प्रमुग्व ग्रन्थकागने उन्हें मलेच्छोंके भदाम क्यों पुरुषोंके पाँच भेद गिनाये हैं और म्लेच्छ पुरुपोंक गिनाया ? या तो उन्हें प्रायकि भेदाम से कार्य दो-अन्तीपज और कर्मभूमिज । भरत, गेग. भेद निकाल देना चाहिए था, या फिर म्लेच्छों वत और विदेह कर्मभूमियाँ है, अर्थात कर्म भूमिमंदामें कर्मभूमिज मलेच्छ नहीं गिनाना चाहिए में केवल भार्यग्बगड या म्लेच्छखण्तु ही मम्मिथा। क्योंकि जब म्लेच्छखण्डोद्भव म्लेच्छ आर्य लित नहीं है, किन्तु आर्य और म्लेच्छ दोनों ही के भदोंमें ही अन्न न हो जाते हैं. तो उन्हें भूमियाँ मम्मिलित हैं। ऐसी परिस्थितिमें म्लेच्छोंन्लेच्छोंमें गिननेकी क्या आवश्यकता थी, और के अन्तीपज और म्लेच्छग्यण्डोव भेद न
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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