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________________ २०६ अनेकान्त करके अन्तईपिज और कर्मभूमिज भेद करना निरर्थक प्रतीत नहीं होता। अर्थात म्लेच्द्रखण्डोद्भबके स्थान में कर्मभूमिज भेद रखने से ऐसा प्रतीत होता है कि म्लेच्द्रखण्ड के बाहिर भी म्लेच्छ पाये जाते हैं और अतभूत करने के लिये ही म्लेच्छोक भेदोंमें कर्मभूमिज भेद गिनाया है । अब देखना यह है कि क्या शास्त्रों यह बात प्रमाणित होती है कि आर्यवण्डमें भी म्लेच्छ रहते हैं ? इसके लिये सबसे पहले तो जयधवला और लब्धिसार-टीकाके उन प्रमागोंपर ही ध्यान देना चाहिये, जिन्हें लेखक महोदय ने अपने लेखमें उद्धृत किया है। उनमें स्पष्ट लिखा है कि चक्रवर्ती आदिके साथ बहुत आर्यखण्ड-मद्र रहते थे। में जाते हैं और का यहाँ के लोगों के साथ वैवा हिक आदि होजाता है। अथति वे आर्य इस लेख से भी यह स्वगत में आकर बसते हैं और यही रीति-रिवाजों को अपना लेते हैं । तथा श्रादिपुराण, पर्व ४२ में, भरत महाराजने राजाओं को उपदेश देते हुए म्लेच्द्रखण्डोइसा म्लेच्छा अन्तरद्वीपायपि कहा है “स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान्प्रजात्रायाविधायिनः । कुलशुद्धिप्रदानायैः स्वसात्कुर्यादुपक्रमैः ॥७६॥ " पढ़े [पॉप, वीर- निर्वाण सं० २४६० अर्थात --यवनादिक कर्मभूमिज म्लेच्छ प्रसिद्ध हैं तथा मलेच्छोंके आचारका पालन करने के कारण अन्य भी बहुतसे मनुष्य कर्मभूमि म्लेच्छ हो जाते हैं । यहाँ पर ग्रन्थकारने यद्यपि यह स्पष्ट नहीं किया है कि ये म्लेच्छ यवन कौन हैं ? किन्तु श्लोक के उत्तरार्द्धसे ऐसा प्रतीत होता है कि वे लेडा म्लेच्छ ही हैं । परन्तु 'प्रसिद्धा' पद यह बतलाता है कि खडके मनुष्य उन यवनोंसे अच्छी तरह परिचित हैं । और इस परिचयका कारण उन सव कार्य याना ही हो सकता है । श्रुतः है कि खण्ड में भी अर्थात -प्रापके देश में जो निरक्षर लिखे ) म्लेच्छ प्रजाको कष्ट देते ही उन्हें कुलशुद्धि वगैरह के द्वारा अपने में मिला लेना चाहिये । इस उल्लेख भी यह स्पष्ट है कि आर्यखण्डमें भी ग्लेन्द्र पुष आ बसते थे। तथा, श्लोकवार्तिक ( पृ० ३५७) में कर्मभूमिज म्लेच्छोको बतलाते हुए लिखा हैकर्मभूमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः । स्युः परे च तदाचारपालनाडु बहुधा जनाः ॥ अमृतचन्द्र सूरिने अपने तत्त्वार्थसार में आर्य का परिचय देते हुए लिखा है- केचिद्राव्यः और ग्रीस डोड़ता आर्याः अर्थात--जो थाखण्ड उत्पन्न हो व आर्य है । किन्तु कुछ शकादिक ब्ध है। मच्छ खण्ड में उत्पन्न होनेवाले और अन्य ट्रीज सब मोड है। इस इलोका लेखक महोदयने भी उद्भुत किया है । किन्तु उन्होंने 'लेन्द्र auster' और 'शकादयः को क्रमशः विशे * यदि म्लेच्छखण्डोद्भव म्लेच्छ ही हैं तो यह कथन अमृतचन्द्राचार्य के विरुद्ध जायगा: क्योंक उन्होंने तत्त्वार्थसारके श्लोक नं० २१२ में, जो आगे उद्धत है, शक यवनादिकको आर्यखण्डोद्भव बतलाया है। -सम्पादक !
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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