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________________ किरण ३ ] क्या सिद्धान्तमन्थों के अनुसार सब ही मनुष्य उच्चगोत्री हैं ? 1 और विशेष्य बनाकर उसका अर्थ करते हुए लिखा है "जो प्लेन्द्रखण्डों में उत्पन्न होनेवाले शकादिक हैं वे सब म्लेच्छ हैं ।" किन्तु इस प्रकार अर्थ करनेमें 'केचिन' शब्दको छोड़ देना पड़ता है, जिसका उदाहरण प्रत्यक्षमें वर्तमान है क्योंकि 'केचिन' शब्दको साथमें लेने पर इस प्रकार होता है-लेखी उत्पन्न होने वाले कुछ शकादिकले हैं। इससे लेख में उत्पन्न होनेवाले सभी व्यक्ति लेन्द्र सिद्ध नहीं होते, किन्तु कुछ शकाविक ही मच्छसिद्ध होते हैं, और ऐसा अर्थ करना आगम बाधित है, इससे बा० सूरजभानजीको 'केचि अर्थ करना छोड़ देना पड़ा है. जो ठीक नहीं है। अतः 'म्लेच्छाः केचिडकाव्यः औरा म्लेच्छाः इन दोनों पद की एकमे न मिलाकर स्वतन्त्र ही रखना चाहिए । तभी केविन की सार्थकता भी सिद्ध होती है और थाचार्य अमृतचन्द्रका लेख पूर्वाचार्योक कथन के प्रतिकुल भी नहीं जाता। असल बात यह है कि में उत्पन्न होनेवालोंको कार्य बतलाते समय आचार्य महाराजकी दृष्टिमें आर्यमें आकर बस जानेवाले शकादिक भी थे । अतः स्पष्टीकरण के लिए उन्होंने लिख म्लेच्छ्रवण्डो आर्यमें आकर बसने वाले स्वयं 'आर्यवण्डोद्भव' कहलाते है-लेन्द्रखण्डोद्भव ही कहलाते हैं भले ही आगे चलकर उनकी सन्तान खण्ड उत्पन्न होनेके कारण श्रार्यखण्डोद्रव कहलाए । 'केचित् शब्दका अर्थ साथमें लेत हुए 'आर्य'पद' और 'लेच्छाः दान पदके साथ समानरूपसे सम्बद्ध है। इसके २०७ दिया कि कुछ शकादिक म्लेच्छ हैं। इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रके लेखसे भी यह सिद्ध है कि कार्य में लेन्द्र भी आवसते थे । आकर बसे हुए इन होमेंसे जो म्लेच्छ यहाँके रीतिरिवाज अपनाते थे और आर्योंकी ही तरह कर्म करने लगते थे वे कर्मचार्य कहे जाने थे क्योंकि अति उत्पन्न न हे नेके कारण वे नार्य नहीं कहे जा सकते थे और जाल्यार्य तो हो ही कैसे सकते थे। अतः ते कर्म श्रार्य कहलाते थे किन्तु आर्यखण्ड में व्याकर भी जो अपने पुः सैनी तंत्राचारको नहीं छोड़ते थे वे म्लेच्छ के स्वच्छ रहते थे। इस प्रकार कर्म आर्य की समस्या सरता सुलभ जाती है। किन्न प्राचार्य विद्यानन्दने चार्य और म्लेच्छ की जो परिभाषा दी है, जिसपर सम्पादक अनेकान्न' ने भी एक टिप्पणी की है. कह समजस प्रतीत नहीं होती; क्योंकि उनकी परिभाषा के अनुसार तो सभी आर्य, भले ही वे केवल चैत्रार्य हो, उच्चगोत्री और सभी ने जिनमें कुल साथ आर्यस्वण्टर्स आकर सकलसंयम धारण कर सकनेकी पात्रता रखते हैं. नीच गोत्री ठहरते हैं। अस्तु । कथित पाँच सिवाय शक पवनादिक लोग जिन देशके यादिभ निवासी हैं वे खण्ड के ही प्रदेश --शास्त्र डोके नहीं जैसा कि विवादापन्न लेख में भी कहलाते हुए प्रकट किया गया hve | अतः शकादिकको art याकर afने वाले कहना ठीक नहीं, और न वह याचार्य महोदयका अभिप्राय है। सम्पादक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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