SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कान्त इस लम्बी चर्चा पाठक जान सकेंगे कि जिन महान ग्रन्थोंके आधार पर बा० सूरजभानुजी ने अन्तरद्वीपोंके सिवाय सभी मनुष्योंको उच गोत्री सिद्ध करनेका प्रयत्न किया था, उनमें से कोई भी प्रन्थ उनकी इस नवीन खोजका साथ नहीं देना | उनका यह प्रयत्न कहाँ तक सराहनीय है, इसका निर्णय करनेका भार तो मैं पाठकों पर ही छोड़ देना उचित समझता है। किन्तु इतना अवश्य लिख देना चाहता हूँ कि शास्त्र के श्रद्धानी हों या श्रद्धानी, दोनोंन ही शास्त्र के साथ न्याय करनेकी चेष्टा बहुत कम की है । अवश्य ही ऐसा करने में आन्तरिक कारण उनकी सदाशयता रही हो । किन्तु मैं तो इसे सभ्य भाषा में प्यारका अत्याचार ही करूँगा। ऐसा ही अत्याचार बाबू सूरजभानुजीने भी किया है। वृद्धावस्था में इस प्रकार के अत्याचार न करने का उनसे रोध करते हुए में केवल एक बात की और ना करके इस लेखको समाप्त करूँगा । [ पौष, वीर- निर्वाण सं० २४६५ असर नहीं डालता, उसके लिए उस कर्मका उदय होना आवश्यक है । इसीसे कर्मकी तीन दशाएँ बतलाई गई हैं--बन्ध, उदय, और सत्ता । बन्धदशा और सत्तादशा में कर्म अपना कार्य करनेमें अशक्त रहता है। उदयकालमें ही उसमें क्रियाशीलता श्राती है। अतः गोत्रकर्म भी अपनी उदयदशामें ही जीवके भावोंपर असर डालता है । बाबूजी ने लिखा है जब नीचगोत्रका अस्तित्व केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद सयोगकेवली और और प्रयोगकेवली भी बना रहता है और उससे उन प्राप्त पुरुषों के सच्चिदानन्द स्वरूप में कुछ भी बाधा नहीं आती तब इस बात कोई सन्देह नहीं रहता कि नीच या उस गोत्रकर्म अपने अस्तित्व से जीवों के भावों पर कोई असर नहीं डालता है। है।' लेखक महोदय के इस कथनमें मैं इतना और जोड़ देना चाहता है कि यह विशेषता केवल गोत्रकर्म में ही नहीं है किन्तु कर्ममात्र में है। किसी भी कर्मका अस्तित्वमात्र जीवके भावों वगैरह पर कोई नोट इस लेख के लेखक शास्त्रीजी मेरे मित्र हैं। लेखमें मुझे मेरे कर्तव्यकी और जो उन्होंने सावधान किया है, इसके लिये में उनका बहुत आभारी हूँ। उसी चेतावनी एवं उसी सावधानी के फलस्वरूप, अबकाशादिकी अनुकूलता न होनेपर भी मुझे इस लेख पर बुद्ध नोटेक लगाने का परिश्रम करना पड़ा है । लेख परसे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि श्रीविद्यानन्दाचार्य के आर्य-म्लेच्छ-विषयक जिस स्वरूपकथनको मैंने सदोष बतलाया था उसे आपने भी सदोष ही स्वीकार किया है तथा उसकी सदोपताको थोड़ा व्यक्त भी किया है। इससे सम्पूर्ण म्लेच्छों अथवा म्लेच्छमात्र के नीचगोत्री होने की जो एक समस्या खड़ी हुई थी उसका हल होता हुआ नजर आता है। साथ ही, सम्पूर्ण आय तथा आर्यमात्रके उच्चगोत्री होने में भी रुकावट पैदा होनी है। और इस तरह यह बात सामने आती है कि किसीका श्रार्थ अथवा म्लेच्छ होना भी ऊँच-नीच गोत्रका कोई परिचायक नहीं है । अथवा दूसरे शब्दों में यो कहिये कि यदि प्रायमें ही ऊँचगोत्रका व्यवहार माना जाय तो वह टीक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy