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________________ अनेकान्त [ फाल्गुण, वीर-निर्वाण सं० २४६५ हो सकता है। आक्रान्त, विषय-कषायोंसे व्याप्त और विवेक-बलसे जैनधर्मके तीर्थकर पुरुषार्थ पूर्वक महती साध- विहीन होता है, तब वह इसी तरह भटका करता है नाओं के द्वारा परमात्म-पदको प्राप्त करके संसारके भोले और इसी तरह उसका पतन हुआ करता है। विवेकके लोगोंको पुकार-पुकार कर कहते हैं कि किसीके भरोसे प्रभावमें वह पुरुषार्थको नहीं अपनाता, स्वावलम्बी मत रहो, न हम तुम्हारा कुछ कर सकते हैं न कोई बनना नहीं चाहता, इच्छाओंका दमन, विषय-कषायों दूसरे। तुम्हारा भला बुरा तो जो कुछ होगा वह सब तुम्हारे पर विजय तथा भय पर काबू नहीं कर सकता, और ही किये होगा, हौसला करो, हिम्मत बांधों और विषय इसलिये अकर्मण्य तथा परावलम्बी हा दर-दरकी कषायोंको कम करने में लग जाओ, न जल्दी करो न ठोकरें खाता फिरता है, दुःख उठाता है और उसे घबराओ, धैर्य के साथ पुरुषार्थ करते रहनेसे सब कुछ कभी शान्ति नहीं मिलती । विवेकको खोकर ही भारतहोजायगा, मगर होगा सब तुम्हारे ही कियेसे । इस कारण वासियोंकी यह सब दुरावस्था हुई है और वे पतित तथा एक मात्र अपने पुरुषार्थ पर ही भरोसा रक्खो और डटे पराधीन बने हैं ! अथवा यों कहिये कि अविवेकके रहो-कारज अवश्य सिद्ध होगा, पुरुषार्थ ही लोक-पर- साम्राज्यमें ही धूर्त चालाकोंकी बन आई है और तथा परमार्थ दोनोंकी सिद्धि का मल-मन्त्र है. उन्होंने अनेक अस्तित्व-विहीन झूठे देवी-देवताओंकी वस्तु स्वभावके अनुसार काम करनेसे कार्य अवश्य सिद्ध सृष्टि, तरह-तरह के बनावटी मन्त्रों-यन्त्रोंकी योजना और होता है, बुद्धिबलसे काम लेकर वस्तु स्वभावको जानना उन सबमें तथा पुरातनसे चले आये देवी-देवताओं और तदनुसार काम करना ही पुरुषका कर्तव्य है; मूढ़ एवं समीचीन मन्त्रोंमें विचित्र-विचित्र शक्तियोंकी मति होनेसे सबही काम बिगड़ते हैं, पशुता आती है कल्पना करके उसके द्वारा अपने कुत्सित स्वार्थकी और पशुके समान खंटेसे बँधनेकी और दूसरोंका सिद्धिकी है और कपायोंकी पुष्टि की है-इस तरह स्वयं गुलाम बननेकी नौबत पाती है । यही जैन-धर्मकी पतित होते हुए देश तथा समाजका भी पतनके गड्ढे स्वावलम्बिी शिक्षा है। में ढकेला है ! जनताके अविवेकका दुरुपयोग करने वाले ऐसे धूर्त तथा चालाक लोग प्रायः सभी समयों और सभी देशोंमें होते रहे हैं और उन्होंने मानव-समाजको खूब हानि पहुँचाई है। जब-जब जनतामें अविवेक बढ़ता है तब-तब ऐसे धूर्तीका प्राबल्य होता है और जब अविवेक घटता जाता है तब ऐसे लोगोंकी इस लेख में लेखक महोदयने अनेकानेक अदृष्ट सत्ता भी स्वतः उठनी जाती है। अतः जनतामें विवेकशक्तियों-देवीदेवताओंकी निराधार कल्पना, उनकी के जाग्रत करनेकी खास जरूरत है; जो उसे जाग्रत निष्फल आराधना, मन्त्रोंकी विडम्बना और उन सबसे करते हैं वे ही मानव-समाजके सच्चे हितैषी और परमहोने वाली मनुष्यत्व तथा देशकी हानिका जो चित्र उपकारी हैं। खींचा है, वह प्रायः बड़ा ही सुन्दर, हृदयद्रावक और लेख के मात्र इतने आशय अथवा अभिप्रायसे ही शिक्षाप्रद है। इसमें सन्देह नहीं कि जब मनुष्य मिथ्या- मैं सहमत हूं, शेषके साथ मेरी सहमति नहीं है। त्वके वशीभूत, भयसे पीड़ित, नाना प्रकारकी इच्छाओंसे -सम्पादक सम्पादकीय नोट
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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