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________________ २७६ हृदयकी वह मूल्य-निधियाँ कि जिनसे है जीवन, जीवन ! उगाकर भोलेपनसे उन्हेंदरिद्री हो बैठा यह मन !! किया करते उद्वेलित इसेक्षणिक, अस्थिर सुख-दुख तूफ़ान न करनेको समर्थ होतावास्तविकताकी दृढ़ - पहिचान ! मनोवेदना भगवत्स्वरूप जैन 'भगवत्' पहुँच जाता सक्षेम सानन्द कभी उत्थान - हिमालय पर ! दुलककर पतन - तलहटीमेंबना लेता यह अपना घर !! अपनी दशा मैं हँसता हूँ तो दुनिया - मुझको पागल बतलाती ! जब रोता हूँ तो उस परकुछ दया नहीं दिखलाती !! मेरे रोने हँसनेमें अनेकान्त फिर विशेषता क्या है ! हँसना भी वैसा ही हैजैसा कि दुखद रोना है !! इस दुनियाकी क्या कहतेदुनिया है रंग-रंगीली ! दुखियोंको रौरव है तोसुखियोंको तान रसीली !! मैं सुख-दुख के सागरमेंअपनापन भूल रहा हूँ ! [ फाल्गुन, वीर निर्वाण, सं० २४६५ विविध, भ्रामिक- प्रलोभनों परनिरन्तर यह रहता फुला ! झूलता मंत्र-मुग्धकी भांतिनिराशा - आशाका झूला !! ग्रन्थि ऐसी दृढ़ता के साथदुखद घटनाओंसे उलझी ! चाहती नहीं सुलझना औरन जो है अबतक भी सुलझी !! माया-मरीचिका लेकर हर्षित हो फूल रहा हूँ !! पर हृदय- देशमें कैसा चल रहा विकट आन्दोलन ! कोमल तर अभिलाषाएँपा रहीं नित्य-प्रति बन्धन !! मेरी सूखी आंखों में नित सजल - गानकी लहरी ! क्यों अनजाने ही दुखप्रद - मदिरा-सी चढ़ती गहरी !! भगवत्स्वरूप जैन 'भगवत्' मैं नहीं चाहता मेराकोई रहस्य प्रगति हो ! सुख हो या दुख कुछ भी होबस, मनमें ही सीमित हो !!
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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