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________________ २२८ अनेकान्त [माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५ सामन्तभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्ततः प्रणेता जिनशासनस्य । यदीय-वाग्वज्रकठोरपातश्चूणींचकार प्रतिवादिशैलान् ।। -श्रवणबेल्गोल-शिलाले० नं० १०८ श्रीसमन्तभद्र (बलाकपिच्छाचार्य के बाद ) 'जिनशासनके प्रणेता' हुए हैं, वे भद्रमूर्ति थे और उनके वचन-रूपी वज्रके कठोर पातसे प्रतिवादी-रूपी पर्वत चूर-चूर होगये थे---कोई प्रतिवादी उनके सामने नहीं ठहरता था। कुवादिनः स्वकान्तानां निकटे परुषोक्तयः । समन्तभद्रयत्यग्रे पाहि पाहीति सूक्तयः ।। -अलङ्कार चिन्तामणौ, अजितसेनः कुवादिजन अपनी स्त्रियोंके निकट तो कठोर भाषण किया करते थे-उन्हें अपनी गवॉक्तियां सुनाते थे:परन्तु जब समन्तभद्र यतिके सामने आते थे तो मधुरभाषी बन जाते थे और उन्हें 'पाहि पाहि'- रक्षा करो, रक्षा करो अथवा आप ही हमारे रक्षक हैं, ऐसे सुन्दर मृदु वचन ही कहते बनता था। श्रीमत्समन्तभद्राख्ये महावादिनि चागते । कुवादिनोऽलिख भूमिमंगुष्ठरानताननाः ॥ ___-अलंकारचिन्ता०, अजितसेनाचार्यः जब महावादी श्रीसमन्तभद्र ( सभास्थान आदिमें ) आते थे तो कुवादिजन नीचा मुख करके अंगूठोंसे पृथ्वी कुरेदने लगते थे-अर्थात उन लोगों पर - प्रतिवादियों पर-समन्तभद्रका इतना प्रभाव पड़ता था कि वे उन्हें देखते ही विपण्ण-वदन होजाते थे और 'किं कर्तव्यविमूढ, बन जाते थे। समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वता, स्फुरन्ति यत्राऽमलसूक्तिरश्मयः । व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यता, न तत्र किं ज्ञानलवद्धता जनाः ।। शानाणवे, श्रीशुभचन्द्राचार्यः श्रीसमन्तभद्र-जैसे कवीन्द्र-सूर्योकी जहां निर्मल सूक्ति रूपी किरण स्फुरायमान होरही हैं वहां वे लोग खद्योत या जुगनूकी तरह हँसीको ही प्राप्त होते हैं जो थोड़ेसे ज्ञानको पाकर उद्धत हैं - कविता अर्थात् नृतन संदर्भकी रचना करने लगते हैं। सरस्वती-स्वैरविहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वजनिपातपाटित-प्रतीपरागत-महीध्रकोटयः ।। -गद्यचिन्तामणी, वादीभसिंहाचार्यः श्रीसमन्तभद्र-जैसे मुनीश्वर जयवन्त हों - अपने तेजोमय व्यक्तित्व से सदा दूसरोंको प्रभावित करते रहें- जो सरस्वती की स्वच्छन्द विहारभूमि थे-जिनके हृदयमन्दिर में सरस्वतीदेवी बिना किसी रोक-टोक के पूरी आज़ादीके साथ विचरती थी और उन्हें असाधारण विद्याके धनी बनाये हुए थी- और जिनके वचनरूपी वज्रके निपातसे प्रतिपक्षी सिद्धान्तरूपी पर्वतोंकी चोटियां खण्ड-खण्ड होगई थीं .- अर्थात् समन्तभद्रके आगे बड़े बड़े प्रतिपक्षी सिद्धान्तोंका प्रायः कुछ भी गौरव नहीं रहा था और न उनके प्रतिपादक प्रतिवादीजन ऊँचा मुँह करके ही सामने खड़े हो सकते थे ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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