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___ ॐ अर्हम्
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नीति विरोध-ध्वंसी लोक-ज्यवहार-वर्तकः सम्यक । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ।।
सम्पादन-स्थान--वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा जिला महारनपुर
प्रकाशन स्थान कनॉट सर्कस पो०२० नं०४८, न्यू देहली माघशुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं० १९९५
किरण ४
समन्तभद्र कौतन
कवीनां गमकांना च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं मूर्ध्नि चूडामणीयते ।।
-आदिपुराणे, जिनसेनाचार्यः । श्री समन्तभद्रका यश कवियोंके नये नये संदर्भ अथवा नई नई मौलिक रचनाएँ तय्यार करने में समर्थ विद्वानोंके ---गमकोंके,-दूसरे विद्वानोंकी कृतियाँक मर्म एवं रहस्यको समझनेवाले तथा दूसरोको समझानेमें प्रवीण व्यक्तियों के, विजयकी और वचनप्रवृत्ति रखनेवाले वादियोंक, और अपनी वाक्पटुता तथा शब्द चातुरीसे दूसरों कोरंजायमान करने अथवा अपना प्रेमी बना लेने में निपुण ऐसे वाग्मियोंकि मस्तक पर चूडामणिकी तरह सुशोभित है। अर्थात् स्वामी समन्तभद्र में कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व नामके चार गुण असाधारण कोटिकी योग्यताको लिये हुए थे—ये चारोंही शक्तियां आपमें स्वास तौरसे विकासको प्रान हुई थीं- और इनके कारण आपका निर्मल यश दूर दूर तक चारों ओर फैल गया था। उस वक्त जितने वादी, वाग्मी, कवि और गमक थे उन सब पर आपके यशकी छाया पड़ी हुई थी-आपका यश चूडामणिके तुल्य सर्वोपरि था--और वह बादको भी बड़े बड़े विद्वानों तथा महान् प्राचार्यों के द्वारा शिरोधार्य किया गया है।