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वर्ष २ किरण ४]
शिकारी
रहा था कि उसकी उँगलियोंमें जान नहीं है । और था । कहाँ बल था उसमें कि घोड़े को दबाकर चिड़िया जैसे उसके हृदयकी धड़कन थमती जा रही है। को शिकार बनाले।
चिड़िया आस्मानमें मँडराती रही और सोचती क्षण-भर निस्तब्धता छाई रही । चिड़िया निडर रही। लेकिन सारे मार्ग अवरुद्ध थे। केवल बच्चे के पास पर खोई-सी बच्चे से चिपटी वैठी थी । वह जानती थी जाने का मार्ग ही खुला था।
कि उसका घातक उसकी घात में बैठा है। इसकी
चिन्ता उसे लेशमात्र भी नहीं थी। विलम्ब न कर एक ही सपाटे में वह अपने बच्चे के मृत शरीर के समीप आ बैठी।
शिकारीकी बन्दूक अनायास ही नीचे भा गिरी।
एक ओर चिड़िया अपने प्यारे बचके विछोह पर शिकारीकी बन्दूक तनी थी।
गरम-गरम आँसू बहा रही थी, दूसरी ओर शिकारीकी निशाना लगा था।
आँखें मजल थीं और दो-दो अश्रु-कण उसके कपोलों और शिकारी आकुल मन को लिए चुपचाप बैठा पर लुढ़क रहे थे।
अन्तर-ध्वनि (ले० श्री कानन्दजी जैन )
अस्ताचल पर देख भानुको, सिहर उठा तन-मन सारा! चन्द्रदेव ! मुझपर क्यों हँसते, मैं तो आप दुखारी हूँ ! नर-जीवनका यह मौलिक दिन, और खोदिया इक प्यारा !! निज सम्पत खोकर घर घर का, हा! अब बना भिखारी हूँ !! व्यथित हुआ है अन्तरात्मा, विश्व भार ढोते ढोत ! यह सब देख हृदय जल उठता, सुप्त भाव जग जाते है। निकला अहां दिवाला ! वैभव, इसी तरह खाते खोते !! तपत बुझानेको अन्तरकी, नयन मीर भर लाते हैं !!
आशा थी नर-तन पाकर कुछ, घाटा पूरा कर लेंगे ! दूर हुआ हा ! भानु शानका, मन-मन्दिर अँधियारी है ! दर्शन-ज्ञान-चरण-रत्नों से कोठे अपने भर लेंगे !! घाव हृदयके छील रही यह, शशि-सुष्मा हत्यारी है !! फेंक भार को भव सागर से, जल्दी पार उतर लगे! मोह-ज्वरसे अति व्याकुल हूँ, मस्तक-पीड़ा भारी है ! मलिन कोठरी त्याग शुद्धतम, सिद्ध शिला पर घर लेंगे !! खाना पीना बातें करना, सब कुछ लगता खारी है !!
कल कल करते कल्प बिताये, नहीं कभी सुख-फल पाया ! इसके वैद्य आप ही हैं, यह जान शरण में आया हूँ ! मृग मरीचिका-सम भटका में, अन्त समय फिर पछताया !! मन है तुच्छ पास "स्वामिन्”, बस भेंट उसीकी सायाहूँ !! इस पागल पन पर मेरे यह. निशा मौन मुस्काती है ! दुष्कृत्यों पर पछताता हूँ, नीर नयन से जारी है ! शान्त व्योम से मूक-ध्वनि कुछ, कानों में कह जाती है !! लाखों मुझ से तारे अब तो, जिनवर ! मेरी बारी है !!