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मैं तो बिक चुका !
[लेखिका-श्रीमती जयवन्तीदेवी, उपसंपादिका 'जैनमहिलादर्श']
राखदेव एक साधारण स्थितिके मनुष्य थे। डाक्टरने नब्ज देखी. माता बोली-कहिये !
इनके खुशालचन्द्र नामक एक पुत्र तथा सरला डाक्टर माहब क्या हालत है ? अच्छा भी हो नामकी एक कन्या थी। इन्होंने बाल्यकालसं ही जायगा ? इतना कहकर वह फूट फूटकर रोने लगी। अपनी सन्तानको उच्च शिक्षा दी थी । जो कुछ मोहनने उनको धैर्य बंधाया और आप उसकी द्रव्य कमाते थे. वही पुत्र व पुत्रीकी शिक्षामें लगा सेवा सुश्रुषा करने में जुट गया। देते थे।
सुग्वदेवने पत्नीसे कहा-घरका तमाम रुपया जब लड़का बी० ए० में उत्तीर्ण होगया. तो खत्म होचुका है, मुझे अब क्या करना चाहिये ? सुखदेव नित्य नानाप्रकारकी कल्पनाएँ किया करते पत्नीने कहा-करोगे क्या, खुशालसे बढ़कर इम थे। विचारते थे कि 'अब हमारे शुभ दिन आगए, संमारमें और क्या प्यारा है ! लो, ये कड़े और खुशालका काम लग जायगा, मैं भी अनाथालय जंजीर बेच दो, इलाजमें कमी न हो। भगवान कर और विद्यालयोंकी सहायता करूँगा' इत्यादि कल्पना यह अच्छा होजाय । मेरा तो यही धन है, यही करते थे और प्रसन्न होते थे; लेकिन दैवको उनका मर्वम्व है । जेवर भी बंचकर इलाजमें लगा दियाः प्रसन्न होना सहन न हो सका।
परन्तु खुशालचन्द्र को कुछ भी फायदा नहीं हुआ। __ होनहार बलवती होती है। भाग्यन पलटा आस्त्रिरकार, एक दिन प्रातःकाल सबके देखतेखाया, खशालचन्द्रको निमोनिया होगया । बड देखते खशालचन्द्र के प्राण पखेरू उड़गये। तमाम बड़े डाक्टर बुलाये, वैद्योंका इलाज करायाः परन्तु घरमें कोलाहल मच गया । सुखदेव और उनकी बीमारी दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी।
पत्नीका विलाप सुनकर सब लोग दुग्वी हो रहे थे, बेचारे सुखदेव और उनकी पत्नी दुःखसागरमें मदय मंघोंमे भी इस ममय उनका विलाप सुनकर गोते लगाने लगे। पुत्रकी ऐसी अवस्था देखकर न रहा गया-वे भी गरजकर रो पड़े । दोनों अविरल-अश्रुधारासे अपना मुँह धो रहे थे। मुखदेवकी ममम्त आशाओंपर पानी फिर इसी समय किसीने दर्वाजा खटखटाया। सुखदेव गया, जीवन मर्वम्व लुट गया, जन्मभरकी कमाई ने उठकर द्वार खोला, देखा कि खुशालचन्द्रका मिट्टीमें मिलगई । लाश पड़ी हुई थी कि इतनेमें ही मित्र मोहन एक सुयोग्य डाक्टरको लेकर आया पोस्टमैनने लिफाफा लाकर दिया, देखा तो खशाहै । उनको देखकर सुखदेवको कुछ धैर्य हुआ। लचन्द्रकी चारसौ रुपयेकी नौकरीका हुक्म था।