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________________ अनेकान्त mm [ भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं० २०६५ - - ज्यों ज्यों वस्तुभोंके इन अटल स्वभावों, उनके प्रत्येक कारणका कार्य, कारणोंका स्वयमेव मिलना, अटल नियमों, तरह तरहके निमित्तांके मिलनेसे उनके स्वयं भी मिलना और दूर हटना, अजीवका जीवपर नियमबद्ध परिवर्तन करने, पर्याय पलटने और इन सब असर, जीवका अजीवपर प्रभाव, जीवका जीवके साथ के अपने स्वभावानुसार एक ही संसारमें काम उपकार और अपकार यह सब वास्तविक विज्ञान बड़ी करते रहने के कारण आपसे श्राप ही एक दूसरेके निमित्त ही सुलभ रीतिसे बताया है। अंतमें जीवको अपने सब बनते रहनेकी खोजकी जाती है,त्यों त्यों यह ही निश्चय विकार दूरकर अपना सचिदानन्द स्वरूप प्राप्त करनेका होता चला जाता है कि यह सारा संसार वस्तु स्वभाव मार्ग सिखाया है जो जैन ग्रन्थोंसे भली भाँति जाना के अटल नियमपर ही चलता रहा है और इसही पर जासकता है। यहाँ इस लेखमें उसका कुछ थोडासा चलता रहेग । सबही वैज्ञानिक इस विषयमें एक मत दिग्दर्शन करादेना ज़रूरी मालूम होता है। हैं और ज्यों-ज्यों अधिक अधिक खोज करते हैं त्यों-त्यों उनको इसका और भी दृढ़ निश्चय होता चला जाता संसारीजीवोंकी प्रत्येक क्रिया रागद्वेष और मोहके है और वस्तु स्वभावकी ज़्यादा ज़्यादा खोज करनेका कारण ही होती है, मान, माया, लोभ क्रोध आदिक चाव अधिक बढ़ता जाता है। अफसोस है कि योरुपके अनेक तरंगे उठती हैं, किसी वस्तुसे सुख और किसीसे इन वैज्ञानिकोंको अभीतक जीवके स्वभावकी खोजकर । दुःख प्रतीत होता है, रति अरति शोक भय ग्लानि काम अध्यात्म ज्ञानकी प्राप्तिका शौक नहीं हुश्रा है, अभीतक भोगकी मस्ती पैदा होती है, इन ही सब कषायों के उनका उलझाव अजीव पदार्थकी ही खोजमें लगा हुआ कारण मन वचन कायको क्रिया होती है। जैसी जैसी है और इसमें उन्होंने असीम सिद्धी भी प्राप्त करली है। कषाय उत्पन्न होती है फिर वैसी वैसी ही कषाय करनेके इस ही तरह अध्यात्मज्ञानकी बाबत भी जो कोई मन संस्कार प्रात्मामें पड़ते रहते हैं, इस प्रकारके संस्कार लगावेगा तो इसमें भी उसको वह ही अटल स्वभाव, पड़नेको भावबन्धन कहते हैं। कुम्हार दंडेसे चाकको अटल नियम, निमित्त कारणों के मिलनेसे नियमरूप घुमाता है, फिर घुमाना बंद करदेनेपर भी चाक आपसे परिवर्तन, अनेक पर्यायों में अलटन पलटन आदि सभी आप ही घूमता रहता है, उसमें भी कुम्हारके घुमानेसे बातें मिलेंगी । विशेष इतना कि जीवों में ज्ञान है. राग- घुमाने का संस्कार पड़जाता है, इस ही कारण कुम्हारके द्वेष है, मोह है और सुख दुःखका अनुभव है. ज्ञान द्वारा घुमाना बन्द करदेनेपर भी उस चाकको आपसे भी उनका बहुत ही भेद हो रहा है और एक दसरेकी आप घूमना पड़ता है । इस ही को भादत पड़ना कहते अपेक्षा किसी में बहुत कम और किसी में बहुत ज्यादा हैं । नशेकी आदत बहुत जल्द पड़ती है और वह छटनी नज़र भारहा है, ज्ञानको यह मंदता, कम व बढ़तीपना, भारी हो जाती है। बहुतसी बातोंकी भारत देरमें रागद्वेष और मोह अनेक प्रकारकी इच्छा और भड़क पड़ती है, लेकिन पड़ती है जरूर । जिनको मिरच खाने दुःख और सुखका अनुभव, यह सब उसके अजीव की पादत होजाती है वे आँखों में दर्द होनेपर भी मिरच पदार्थके साथ सम्बन्ध होने के कारण उनमें विकार पा- खात ह, दुःख उठात है, सिर पीटते हैं और चिल्लात है, जानेसे ही हो रहा है। अजीव पदार्थके साथ उसका लेकिन मिर्च खाना नहीं छोड़ सकते हैं। जैसी जैसी यह सम्बन्ध और उसका यह विकार सर्वथा दूर होकर क्रिया जीव करता है, जैसे जैसे भाव मनमें लाता है, उसको अपना असली स्वरूप भी प्राप्त हो सकता है, जैसे जैसे वचन बोलता है वैसी ही वैसी आदत इसको जो सदाके लिये रहता है। होजाती है, फिर फिर वैसा ही करनेका संस्कार उसमें पड़ जाता है, उसी प्रकारके बंधन में यह बंध जाता है। वीर भगवान्ने यह सब मामला वैज्ञानिक रूपसे बोका स्यों समझाया है, जीवकी प्रत्येक दशाका कारण, (शेष भागामी अंकमें)
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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