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________________ वर्ष २, किरण ११] चौर भगवान्का वैज्ञानिक धर्म आहार लेकर ग्राम अमरूद मादि तरह-तरहके वृक्ष पैदा स्वभावके ही अनुसार होता है, और वस्तुका यह स्वभाव हो जाते हैं। अर्थात् तरह तरहके बीजोंके निमित्तसे एक घटना है, वस्तु अनादि है इस कारण उसका स्वभाव भी ही प्रकारकी मिट्टी पानी प्राम अमरूद भादि नामकी अनादि है। किसीके माधीन नहीं है कि जो जिस समय तरह तरहकी पर्यायोंमें पलट जाती हैं, जिनका रंग रूप जिस रूप चाहे वैसा ही स्वभाव किसी वस्तुका करदे । स्वाद, स्वभाव, पत्ते फूल फल आदि सब ही एक दूसरे- इस ही निश्चयके कारण तो संसारके सब ही मनुष्य से जुदे होते हैं । कोई घास है, कोई बेल है, कोई पौदा और पशु पक्षी संसारकी वस्तुओंका स्वभाव पहचानकर है, कोई तृण है, कोई वृक्ष है; और इनमें भी फिर इतने और उस स्वभावको अटल जानकर उनको वर्तते हैं। भेद जिनकी गिनती नहीं हो सकती है। इस ही घास, यदि ऐसा न होता तो संसारका कोई भी व्यवहार न फूस, और फल, फूलको बकरी खाती है तो बकरीकी चल सकता, अर्थात् संसार ही न चल सकता, यह सारा क्रिस्मका शरीर और आँख नाक कान प्रादि बनेंगे; संसार तो वस्तुओंके अटल स्वभावपर ही एक दूसरेका घोड़ा खावेगा तोघोड़ेकी क्रिस्मके, और बैल खावेगा निमित्तपाकर आपसे भाप चल रहा है, योल्पके वैज्ञा तो बैलकी क्रिस्मके, अर्थात् एक ही प्रकारका घास फूस निक भी यह जो कुछ तरह तरहके महा आश्चर्यजनक तरह तरहके पशुभोंके पेटका निमित्त पाकर, उनके द्वारा आविष्कार कर रहे हैं, वह सब वस्तुओंके स्वभाव और पचकर तरह तरहके शरीर रूप बन जावेगा; तरह तरहके उनके अटल नियमोंके खोज निकालनेका ही तो फल पशुओंकी पर्याय धारण करलेगा, फिर एक ही मिट्टी है, वे रेडियो जैसी सैकड़ों आश्चर्यजनक वस्तुयें बनाते पानीसे बने हुए तरह तरहके वृक्षों बेलों और हैं और हम देख-देखकर आश्चर्य करते हैं। हममें और पौदोंके फूल पत्ते और अनाज जो मनुष्य खाता है उनमें इनने बड़े भारी अन्तर होनेका कारण एकमात्र उससे मनुष्यका शरीर बनजाता है अर्थात् यह ही सब यह ही है कि वे तो वस्तु स्वभावको अनादि निधन और वस्तुयें मनुष्यकी पर्याय धारण कर लेती हैं। घटल मानकर उसके जानने और समझनेकी कोशिश यह कैसा भारी परिवर्तन है जो दूसरी दुसरी व करते हैं और वस्तुके अनन्त स्वभावोंमसे किसी एक स्तोंका निमित्त पाकर प्रापसे श्राप संसारमें होता स्वभावको जानलेनेपर उससे उसहीके अनुसार काम लेने. रहता है । इसपर अच्छी तरह गौर करनेसे यह भी लग जाते हैं और हम वस्तुओंके स्वभावको अटल न मालूम हो जाता है कि यह परिवर्तन ऐसा अटकलपच्च् मान उनको किसी ईश्वर या देवी देवता नामकी किसी नहीं है जो कभी कुछ हो जाय और कभी कुछ; किन्तु अदृष्ट शक्तिको इच्छाके अनुसार ही काम करती हुई सदा नियमबद्ध ही होता है। भामके बीजसे सदा समझ, उस अदृष्ट शक्तिके भेदको अगम्य समझ मूर्ख श्रामका वृक्ष ही उगता है और नीमके बीजसे सदा यने बैठे रहना ही बेहतर समझते हैं । और जब वैज्ञा नीमका ही, यह कभी नहीं हो सकता कि प्रामके बीज निक कोई अद्भुत वस्तु बनाकर दिखाते हैं तो हम उनके से नीमका और नीमके बीजसे प्रामका वृक्ष पैदा हो. इस कामको देखकर चकाचौंध होकर भौचकेसे रहजाय, यह अटल नियम सब ही वस्तुमों में मिलता है, जाते हैं और इसको भी ईश्वरकी एक लीला मानकर जिससे साफ सिद्ध होता है कि यह सब उल्ट फेर वस्तु उसकी बड़ाई गाने लग जाते हैं।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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