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________________ APA मन्दिरोंके उद्देश्यकी हानि . [ले०-५० कमलकुमार जैन शास्त्री 'कुमुद' ] मूहिक रूपमें उच्च जीवन बनानेके हेतु, राष्ट्रके स्वभावसे ही प्रयत्नशील-प्रगतिशील और सुखोंकी कामना महान् आत्माओं और सत्पुरुषोंकी स्मृतिमें जो करनेवाला है इसलिए वह सुखोंके दायरेको बढ़ाने में स्थान निश्चित किये जाते हैं उनको देवस्थान, देवालय, निरन्तर तत्पर रहना है । इस प्रकार वह उन्नति करता देवल अथवा देवमन्दिर कहते हैं । उनका जीवन पवित्र हुअा वैयक्तिकसे कौटुम्बिक, कौटुम्बिक्से सामाजिक और और लोकोपकारी होनेके कारण ही उन स्थानोंको सामाजिकसे “वसुधैवकुटुम्बकम्" के सार्वजनिक सिद्धा पवित्र माना जाता है। ये स्थान राष्ट्रके श्रादर्श स्थान न्तका माननेवाला बनता तथा अपने समान प्राणीहैं-वे किसी जाति विशेषकी बपौती सम्पत्ति नहीं हो मात्रके कल्याणकी कामना करने लगताहै। सकते । हरएक इन्सान उनसे लाभ उठानेका पूरा पूरा इन्हीं स्वाभाविक गुणोंसे प्रेरित होकर ही मनुष्यने अधिकारी है। सामाजिक और राष्ट्रीय जीवनकी उन्नतिके लिए एक मनुष्य सामाजिक प्राणी है, इसलिये वह अकेला सामान्य स्थानकी रचना की औरवहाँ जाति तथा राष्टके नहीं रह सकता । उसका यह स्वभाव है कि समाजमें महान पुरुषोंकी प्रतिमाएं स्थापित की, ताकि लोग वहाँ रहे और निरन्तर सामाजिक संगठन तथा उमतिकी एकत्र होवे और मापसमें मिल-जुलकर अपने श्रादर्शको चर्चा करे। इन्हीं स्वाभाविक गुणोंसे प्रेरित होकर वह ऊँचा बनावें व परस्परमें मिलकर उन्नति करें। ऐसे चाहता है कि उसके वैयक्तिक और कौटुम्बिक जीवनका स्थान “देवमन्दिर" कहलाते हैं और उनके निर्माणमें दायरा बढ़कर सामाजिक होवे, सामाजिक दायरेमें लोकसंग्रह तथा सामाजिक उत्थानका भारी तत्व संनि आकर वह उससे भी तृप्त नहीं होता और अपनी श- हित है । उदार जैनधर्मने राष्ट्र के अंगरूप प्रत्येक मनुष्यक्तियोंका विकास करता हुआ राष्ट्रीय तथा विश्वजीवन- को राष्ट्रकी सम्पत्ति माना और उसके धार्मिक तथा के दायरेमें मानेका प्रयत्न करता है। चूंकि प्रारमा सामानिक अधिकारों की रक्षा करते हुए को प्रायः सब
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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