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________________ ६५६ अनेकान्त [श्राश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५ समान अधिकार दिया। वीर-सम्तान जब तक इस भूल गई-वह अपने उमतिके मार्गको भयके भूतोंसे सिद्धान्तको इसके असली स्वरूपमें मानती रही तब तक भरा हुआ देखने लगी है। यह भय और भी बढ़ जाता उसने दुःखों और संकटोंका अनुभव तक न किया वरन् है जब स्वार्थीजन उन मिथ्या भयके भूतोंका विराटचक्रवर्ति राज्य तकका भी सुख भोगती रही। स्वरूप लोगोंको बतलाते हैं, इससे वे वहीं ठिठककर माज दिन देव और उनके स्थान ऐसे व्यक्तियोंके शन्यवत् हो जाते हैं। हाथोंमें पड़े हैं जो स्वयं उन लोकोपकारी महान् श्रा- जाति सामूहिक रूपमें उन्नति करे और उतिके स्माभोंके जीवनचरित्र तकको पूर्ण रूपसे नहीं जानते, उच्च शिखरपर आरूढ होवे, इसके लिए जातिके कर्णविद्याध्ययन तथा विद्याभ्यास करना कराना भी जिन्हें धार अनेकों प्रकारकी कठिनाइयों और संकटोंको सहते नहीं रुचता, और जो अपनी अज्ञानता तथा मूर्खताको हुए सतत परिश्रम कर रहे हैं, उनका बलिदान पर चतुराईसे छिपा रखनेके लिए रूढ़िवादको ही धर्मवादकी बलिदान हो रहा है; परन्तु हमारे धर्माधिकारी पंचछाप लगा रहे हैं, जनसाधारणमें इस बातकी जड़ जमा पटेल टससे मस होना नहीं चाहते और धर्मकी दुहाई रहे हैं कि जो कुछ उल्टा-सीधा हमारे बाप-दादे करते देकर आगे आनेवालोंको पीछे घसीटते हुए उन्हें 'सुधा आये हैं उसको छोड़कर धर्म-कर्म कोई चीज़ नहीं है। रक बाबू' का फतवा दे देते हैं । जातिको एकताके सूत्र वेष भूषा तथा तिलक छापकी पूजा करनेसे ही मोतका में संगठित करने में जो मूल्य सच्चे सुधारक दे रहे हैं द्वार खल जावेगा। इनके मतमें भावना और श्रद्वान उसकी वे कुछ भी चिन्ता नहीं करते । नहीं मालूम उन्हें ही प्रधान धर्म हैं, परन्तु वे यह नहीं समझते कि किसी कब सुबुद्धिकी प्राप्ति होगी। वस्तुके असली स्वरूपको जाने बिना शुद्ध भावना और इन पंच-पटेलोंकी कृपासे जैन समाजमें अछूत और सच्चा एवं रद श्रद्धान कैपे हो सकता है ! दलित (दस्सा विनैकावार ) कहलाए जानेवाले हमारे जातिको रसातलमें पहुंचानेवाली ऐसी ही बातोंने ही जैनी भाई, जो जिनेन्द्रदेवका नाम लेते, अपनेको उत्तम पाचरण, उपमादर्श और सद्भावनामोंको पदद- भगवान् महावीरकी सन्तान मानते, उनके आदेशों पर लित कर दिया, मन्दिरोंको उनके प्रादर्शसे गिरा दिया, चलते और उनकी भक्तिसे मुक्ति मानते हैं, वे जिनेन्द्रका अकर्मण्यता, भालस्य, ब्राह्मण भोजन, मामूली दान- दर्शन तथा पूजा-प्रहाल करने देवालयों में नहीं ना सकते तीर्थ-व्रत प्रादिसे ही मुक्तिका प्राप्त होना बतला दिया और सिद्धान्त शास्त्रोंका स्वाध्याय भी नहीं कर सकते ! और धार्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय-मनन अनुशीलन तथा पंच पटेलों और उनके धार्मिक-सामाजिक अधिकारकी योग-समाधि, संयम और सामायिक जैसे भावश्यक इस मिथ्या और नाजायज़ सत्ताने दो लाखसे उपर कर्मोंको अनावश्यक ठहरा दिया ! नतीजा यह हुआ कि महावीरके सच्चे भक्तोंको उनके जन्म सिद्ध अधिकारोंसे समाजमें मूर्खताका साम्राज्य बढ़ गया, जाति स्वाभि- वंचित कर रखा है !! जरा हम ही विचारकर देखें क्या मान तथा स्वावलम्बनसे शून्य होकर अपनी शक्तियोंको यह घृणित सत्ता जैन-जातिके लिए घातक नहीं है। विकास करनेमें साहस हीन तथा निरूसाही हो गई भगवान् महावीर पतित पावन है, उनकी कथा सुनने और मस्तिष्क तथा विवेकसे काम लेना बिल्कुल ही और उनका दर्शन करनेसे महापातकी भी पवित्र हो
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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