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________________ अनेकान्त [ वर्ष २, किरण १ में - अर्थात्-दशवैकालिककी 'श्रीविजयोदया' श्रीनन्दी था और जिन्होंने वि० सं० १०७० में नामकी टीकामें उद्गमादिदोषों का विस्तारके साथ पुराणसार' नामका ग्रन्थ भी लिखा है ।। वर्णन किया गया है, इमीसे यहाँ पर उनका जयनन्दी नामके यों तो अनेक मुनि होगये हैं; विस्तृत कथन नहीं किया जाता। परन्तु पं० आशाधरजी से जो पहले हुए हैं ऐसे हाँ, मूलाराधना-दर्पण परसे यह मालूम नहीं एक ही जयनन्दी मुनिका पता मुझे अभी तक होसका कि प्राकृत टीकाकं रचयिता कौन आचार्य चला है, जोकि कनडी भाषाके प्रधान कवि हुए हैं-५० आशाधरजी ने उनका नाम साथ में आदिपम्पसे भी पहले होगये हैं; क्योंकि आदिपम्प नहीं दिया । शायद एक ही प्राकृत टीकाके होने के ने अपने 'आदिपुराण' और 'भारतचम्पू में जिस कारण उसके रचयिताका नाम देनेकी जरूरत न न का का रचनाकाल शक सं० ८६३ (वि० सं० ९९८) समझी गई हो । परन्तु कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है, उनका स्मरण किया है। बहुत संभव है कि है कि पं० पाशाधरजीने प्राकृत टीकाके रचयिताके ये ही 'जयनन्दी' मुनि भगवती आराधनाके विषयमें अपने पाठकोंको अँधेरेग रक्खा है। दोनों टिप्पणकार हो । यदि ऐसा हो तो इनका समय टिप्पणियों के कर्ताओका नाम उन्होंने जरूर दिया वि० का १०वीं शताब्दीक करीबका जान पड़ता है, जिनमें से एक हैं 'जयनन्दी' और दूसरे है क्योंकि आदिपुराणमें बहुतसे आचार्यों के 'श्रीचन्द्र'। श्रीचन्द्राचार्य के दूसरे टिप्पण प्रसिद्ध स्मरणान्त स्मरणान्तर इनका जिस प्रकारसे स्मरण किया हैं-एक पुष्पदन्त कविके प्राकृत उत्तरपुराणका गया है उस परसे ये श्रादिपम्पके प्रायः समकालीन टिप्पण है और दूसरा रविपेण के पद्मचरित का। अथवा थोड़े ही पूर्ववर्ती जान पड़ते हैं । अस्तु । पहला टिप्पण वि० सं० १०८० में और दसरा विद्वानोंको विशेष खोज करके इस विषयमं अपना वि० सं० १०८७ में बनकर समाप्त हुआ है। निश्चित मत प्रकट करना चाहिये । जरूरत है, भगवती आराधना का टिप्पण भी संभवतः इन्हीं प्राकृतटीका और दोनों टिप्पणों को शाखभण्डारों श्रीचन्द्रका जान पड़ता है, जिनके गुरुका नाम की कालकोठरियोंसे खोजकर प्रकाशमें लाने की। • "श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्र महा- ये सब प्रन्थ पं० आशाधर जी के अस्तित्वकाल पुराण-विषमपदविवरणं सागरसेनपरिज्ञाय मूलटिप्पणं चालोक्य १३वीं-१४वीं शताब्दी में मौजूद थे और इसलिये कृतमिदं समुच्चय-टिपणं अशपातमौतेन श्रीमदलाकारगण श्री पुराने भण्डारोंकी खोज द्वारा इनका पता लगाया नन्याचार्य-सत्कविशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना, निजदोर्दैडाभिभूत- _... रिपुराज्यविजयिन: श्रीभोजदेवस्य [राज्ये ॥१०२॥ इति उत्तर- +धारायां पुरि भोजदेवनृपते राज्ये जयात्युच्चकैः पुराणटिप्पणकम्"। भीमसागरसेनतो यतिपतेात्वा पुराणं महत् । ___"बलात्कारगण-श्रीश्रीनन्याचार्य सत्कविशिष्येण श्रीचन्द्र- मुक्त्यर्थं भवभीतिभीतजगतां श्रीनन्दिशिष्यो बधो मुनिना, श्रीमविक्रमादित्यसंवत्सरे सप्ताशीस्यधिकवर्षसाने श्रीमहा- कुर्वे चारुपुराणसारममल श्रीचन्द्रनामा मुनिः ॥१॥ रायां श्रीमतो राज्ये भोजदेवस्य पम नरिने । इति पमचरिते १२३ श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे सप्तत्यधिकवर्षसहस्रे पुराणसाराभिधान समाप्तम् ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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