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________________ लुप्तप्राय जैन साहित्य सम्पादकीय - भगवती आराधनाकी दूसरी प्राचीन टीका-टिप्पणियाँ भगवती आराधना और उसकी टीकाएं। कीय नोट में सूचित किया था 'विनयोदया' 'नामका एक विस्तृत लेग्य 'अनेकान्त' के नहीं, जिसके होने पर प्रेमीजीने जोर दिया था। प्रथम वर्षकी किरण ३, ४ में प्रकाशित हुआ था। एक विशेष बात और भी ज्ञात हुई है और वह उसमें सुहृद्वर पं० नाथूगमजी प्रेमीने शिवाचार्य- यह कि अपराजित सूरिका दूसरा नाम 'विजय' प्रगीन 'भगवती आराधना' नामक महान ग्रंथकी अथवा 'श्रीविजय' था । पं० आशाधरजी ने चार संस्कृत टीकाओं का परिचय दिया था-१ अप. जगह जगह उन्हें 'श्रीविजयाचार्य' के नाम से राजित सूरिकी 'विजयादया,' २५० आशाधरकी उल्लेखित किया है और प्रायः इसी नामके साथ उनकी उक्त सम्कृत टीकाके वाक्योंकी मतभेदादिके 'मूलाराधना-दर्पण', ३ अज्ञातक का 'पागधनापंजिका' और ४ ५० शिवजीलाल की 'भावार्थ प्रदर्शनरूपमें उद्धृत किया है अथवा किसी गाथाकी अमान्यतादि-विषयमं उनके इस नामको दोपिका' टीका । पं० सदासुखजीकी भाषाबच. पेश किया है। और इसलिये टीकाकारने टीकाको निकाके अतिरिक्त उम वक्त तक इन्हीं चार टीकाओं अपने नामाङ्कित किया है, यह बात स्पष्ट हो का पता चला था। हाल में मूलाराधना-दर्पण. जाती है। स्वयं 'विजयोदया' के एक स्थल परम को देखते हुए मुझे इस ग्रन्थकी कुछ दूसरी प्राचीन यह भी जान पड़ा है कि अपराजित सूरिने दशटीका-टिप्पणियांका भी पता चला है और यह वैकालिक सूत्र पर भी कोई टीका लिखी है और मालूम हुआ है कि इस ग्रंथ पर दी संस्कृत टिप्पणों उसका भी नाम अपने नामानुकूल 'विजयादया' के अतिरिक्त प्राकृत भाषाको भी एक टीका थी, दिया है । यथा:जिसके होनेकी बहुत बड़ी सभावना थी; क्योंकि "दशकालिकटीकायां श्रीविजयोदयायां मूलग्रंथ अधिक प्राचीन है। साथ ही, यह भी स्पष्ट प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते ।" हो गया कि अपराजित सूरिकी टीकाका नाम –'उग्गम उप्यायग्णादि' गाथा नं . ११९७ 'विजयादया' ही है, जैसा कि मैंने अपने सम्पाद *देखो, 'भनेकान्त, 'प्रथम वर्ष, किरण ४ १०२१०
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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