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________________ अनेकान्त [ वर्ष २, किरण १ "प्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।” कारको दूर करनेका प्रयत्न करना, रांगसे पीड़ित प्राणियोंके लिये औषधालयों-चिकित्सालयोंकी 'जो जो बातें, क्रियाएँ, चेष्टाएँ, तुम्हारे प्रति- व्यवस्था करना, बेरोजगारी अथवा भूखस संतप्त कूल है-जिनकं दूसरों द्वारा किये हुए व्यवहार का मनुष्योंके लिये राज़गार-धन्धेका प्रबन्ध करके तुम अपने लिये पसन्द नहीं करते, अहितकर उनक रोटीके सवालको हल करना, और कुरीतियों और दुखदाई समझने हो- उनका आचरण तुम कुसंस्कारों तथा बुरी आदतोंस जर्जरित एवं दूसरोंके प्रति मत करो।' पतनान्मुख मनुष्य समाजके सुधारार्थ मभा__ यही पापोंसे बचनेका गुरुमंत्र है । इसमें मामाइटियाका कायम करना और उन्हें व्यवस्थित संकेतरूपसे जो कुछ कहा गया है व्याख्या द्वारा रूपमं चलाना, ये सब उसी दया प्रधान प्रवृत्तिरूप सेवाधर्म आङ्ग हैं। पूज्यों की पूजा-भक्ति-उपासना उसे बहुत कुछ विस्तृत तथा पल्लवित करके बत के द्वारा अथवा भक्तियोग-पूर्वक जो अपने आत्मा लाया जा सकता है। का उत्कर्ष सिद्ध किया जाता है वह सब भी प्रवृत्तिरूप सेवाधर्म में 'दया' प्रधान है । दूसरों मुख्यतया प्रवृत्तिरूप संवाधर्मका अङ्ग है। के दुःखों-कष्टों का अनुभव करकं-उनसे द्रवीभूत इस प्रवृत्तिरूप संवाधर्ममें भी जहाँतक होकर-उनके दूर करनेके लिये मन-वचन-कायकी अपने मन, वचन और कायसे सेवाका सम्बन्ध जो प्रवृति है-व्यापार है-उसका नाम 'दया है। है वहाँ तक किमी कौड़ी पैसे की जरूरत नहीं अहिंसाधर्मका अनुष्ठाता जहाँ अपनी ओर से पड़नी-जहाँ सेवाके लिये दुसरे साधनों काम किसीको दुःख-कष्ट नहीं पहुँचाता, वहाँ दयाधर्म लिया जाता है वहाँही उसकी जरूरत पड़ती है । का अनुष्ठाता दुसगं के द्वारा पहुँचाए गये दुःख- और इस तरह यह स्पष्ट है कि अधिकांश सेवाधर्म कष्टांका भी दूर करनेका प्रयत्न करता है। यही । । के अनुष्ठानकं लिये गनुष्यको टके-पैसकी दोनों में प्रधान अन्तर है । अहिंसा यदि सुन्दर जरूरत नहीं है। जरूरत है अपनी चित्तवृत्ति और लक्ष्यको शुद्ध करनेकी, जिसके बिना संवाधर्म पुष्प है तो दयाकी उसकी सुगंध समझना चाहिये। बनता ही नहीं। दयामें सक्रिय परोपकार, दान, वैय्यावृत्य, इस प्रकार संवाधर्मका यह संक्षिप्तरूप, धर्मोपदेश और दूसरोंके कल्याण की भावनाएँ विवेचन अथवा दिग्दर्शन है, जिसमें सब धोका शामिल हैं। अमानसे पीड़ित जनता के हितार्थ समावेश हो जाता है। आशा है यह पाठकोंको विद्यालय-पाठशालाएँ खुलवाना, पुस्तकालय- रुचिकर होगा और वे इसके फलस्वरूप अपने वाचनालय स्थापित करना, रिसर्च इन्सटीट्य टो लक्ष्यका शुद्ध बनाते हुये लोकसेवा करने में का - अनुसन्धान प्रधान संस्थाओंका - जारी अधिकाधिक रूपसे दत्तचित्त होंगे। कराना, वैज्ञानिक खोजोंको प्रोत्तेजन देना तथा वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, ग्रन्थनिर्माण और व्याख्यानादिके द्वारा अज्ञानान्ध ता०२५-८-१९३८
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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