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________________ "अनेकान्त [ज्येष्ट, वीर-निवास - परिणाम स्वरूप ज़रूर सताया जायगा और दुख उठा- वा धर्मसाधन करनेसे रोकता है वह धर्म नहीं, किन्तु येगा, जैसा तुम दूसरों के लिये चाहोगे, वैसे ही तुम ज़बरदस्तोंकी ज़बरदस्ती और ज़ालिमोंका जुल्म है, ऐसी खुद बन जानोगे, यह ही एक अटल मिद्धान्त हृदयमें घोषणाकर वीर प्रमुने अपने धर्मोपदेशमें सब ही जीवोंको धारण करो। भला बुरा जो कुछ होता है वह सब अपने स्थान दिया, शूद्रो, चांडालों, पतितों, कलंकियों, दुराही किये कर्मोंसे होता है, इस कारण मरे हुए. जीवोंकी कारियों, अधर्मियों, पापियों और धर्मके नामपर हिंसा गति भी उनके अपने ही किये कोंके अनुसार होती है- करनेवाले धर्मद्रोहियों आदि सबही स्त्री पुरुषोंको धर्मका दूसरोंके किये कर्मों के अनुसार नहीं । मैं खाऊँगा तो मेरा सच्चा स्वरूप बताकर श्रात्मकल्याणके मार्गपर लगाया, पेट भरेगा और तुम खाश्रोगे तो तुम्हारा। अतः ब्राह्मणोंको पाप करना छुड़ाकर धर्मात्मा बनाया । केवल मनुष्यों के खिलानेसे मरे हुए. पितरोंका पेट नहीं भर मकता है और ही नहीं, किन्तु वीरप्रभुने तो पशु पक्षियों तकको भी न किसीके पुत्रके द्वारा ही उसकी गति हो सकती है। अपने धर्म-उपदेशमें स्थान देकर धर्मका स्वरूप समयह सब मुफ्तखोरे लोगोंने बेसिर पैरकी अप्राकृतिक बातें झाया-शेर, भेड़िया, कुत्ता, बिल्ली, सूअर, गिद्ध और घड़कर भोले लोगोको अपने जाल में फंसा रखा है,जिस- चील कौव्वा श्रादि महा हिंसक जीव भी उनकी मभामें से स्त्रियोंको भी अपने पतिम पुत्र न होसकने पर देवर आये और धर्मोपदेश सुनकर कृतार्थ हुए। . श्रादि पर पुरुष के साथ कुशील सेवन करके पुत्र उत्पन्न 'औषधि बीमारोंके वास्ते ही की जाती है, भोजन करना पड़ता है, बेचारियोंको ज़बरदस्ती ही इस उलटे भूग्वके वास्ते ही बनाया जाता है, मार्गसे भटके हुोंको सिद्धांतके कारण कुशील में फँसना पड़ता है, इससे ही रास्ता बताया जाता है; इस ही प्रकार धर्मका उपदेश अधिक घोर अंधकार और क्या हो सकता है ? स्त्रियोंसे भी उस ही को सुनाया जाता है, जो धर्मका स्वरूप नहीं पुरुष उत्पन्न होते हैं, उनको इतना नीचे गिराना कि जानता है, धर्मभ्रष्टको ही धर्म मार्ग पर लगानेकी ज़रूरत उनका कोई संस्कार भी मंत्रों द्वारा नहीं हो सकता, वे है, ऐसा कल्याणकारी वीरप्रभुका श्रादेश था । उन्होंने मंत्रीका उच्चारण वा जाप श्रादि वा अन्य धार्मिक अनु- स्वयं जगह जगह घूम फिरकर महा पापियों, धर्मभ्रष्टों, धान भी नहीं कर सकती,कितना बड़ा जुल्म और पुरुषों- महाहिंसकों, मांस-श्राहारियों, दुराचारियों, पतितो, कलंकी बुद्धि का अंधकार है।' कियों शूद्रों और चांडालोंको पापसे हटाकर धर्ममें लगाया इस प्रकार पुरुषोंकी बुद्धि को ठिकाने लाकर वीर और उन्हें जैनी बनाकर धर्मका मार्ग चलाया। प्रभुन श्रावक, श्राविका और मुनि, आर्यिका नामके संघ मिथ्यात्वीसे ही जीव सम्यक्ती बनता है और पतित पनाकर स्त्रियोंको श्रावकका गृहस्थधर्म और त्यागियोंका को ही ऊपर उठाया जाता है, इस बातको समझाने के त्यागधर्म साधन करनेकी भी इजाज़त दी, इजाज़त ही वास्ते वीरप्रभुने अपना भी दृष्टान्त कह सुनाया कि एक नहीं दी किन्तु पुरुषोंसे भी अधिक गिनतीमें उनको बार में मिहकी पर्यायमें था, जब कि पशुओंको मारना धर्म साधनमें लगाया और उनके ऊपरसे पुरुषोंके भाग और मांस खाना ही एकमात्र मेरा कार्य था, उसही पर्याजुल्मको हटाया। यमें एक समय किसी पशुको मारकर उसका मांस स्वा .. 'जो धर्म किसी जीवको धर्मक स्वरूपको जानने रहा था कि एक मुनि महाराजने मुझको सम्बोधा, धर्म
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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