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________________ ३०२ अनेकान्त भिखारी और दाने-दाने को मोहताज है, जिस पापात्माने द्रोपदी का अपमान किया और जो हमारे जीवन के लिए राहु बना हुआ है, उसी नारकीय कीड़ेके प्रति इतनी मोह ममता रखते हुए आपको कुछ ग्लानि नहीं होती धर्मराज !” भीमके रोप भरे उत्तरसे धर्मराज चुप हो रहे; किन्तु उनकी आन्तरिक वेदना नेत्रोंकी राह पाकर मुँह पर अश्रु रूपमें लुढ़क पट्टी ! अर्जुनने यह देखा तो लपककर गाण्डीव - धनुप उठाया और जाकर शत्रुको युद्ध के लिए ललकार उसे पराजित करके दुर्योधनको बन्धनसे मुक्त कर दिया | तब धर्मराज भीमसे हँसकर बोले- भैया, हम आपस में भले ही मतभेद और शत्रुता रखते हैं, कौरव १०० और हम पाण्डव ५, बेशक जुदा-जुदा हैं । हम आपस में लड़ेंगे, मरेंगे, किन्तु किसी दूसरे के मुकाबिले में हम १०० या ५ नहीं, अपितु १०५ हैं । संसारकी दृष्टिमें भी हम भाईभाई हैं। हममें से किसी एकका अपमान हमारे समूचे वंशका अपमान है, यह बात तुम नहीं, अर्जुन जानते हैं । युधिष्ठिरके इस व्यंग भीम मुँह लटकाकर रह गये । ( ९ ) विश्व विजेता सिकन्दर जय मृत्यु- शैया पर पड़ा छटपटा रहा था, तब उसकी माँने रुधे हुए कण्ठसे पूछा - "मेरे लाइले लाल ! अब मैं तुझे कहाँ पऊँगी ?" सिकन्दरने बूढ़ी मांको ढारस देनेकी नीयत में कहा - “अम्मीजान ! सत्रहवीं वाले रोज़ मेरी कुछ पर आना, वहां तुझे मैं अवश्य मिलूंगा ।" मांकी मोहब्बत, बड़ी मुश्किलसे १७ रोज़ कलेजा थामकर बैठी रही । आखिर १७ वीं वाले दिन रातके समय कब्र पर गई । कुछ पाँवों की आहट पाकर बोली “कौन बेटा सिकन्दर !" आवाज़ भाई "कौनसे सिकन्दरको तलाश करती है ?" मांने कहा - "दुनियाके शहन्शाद अपने लख्ते जिगर [ फाल्गुण, वीर - निर्वाण सं० २४६५ सिकन्दर को, उसके सिवा और दूसरा सिकन्दर है कौन ?” अट्टहास हुआ और वह पथरीली राहांकां तें करता हुआ, भयानक जंगलोंको चीरता फाड़ता पर्वतोसे टकराकर विलीन हो गया । धीमे से किसीने कहा -"अरी बावली कैसा सिकन्दर ! किसका सिकन्दर ! कौनसा सिकन्दर ! यहाँके तो ज़रें ज़रें में हज़ारों मिकन्दर मौजूद हैं !" वृद्धा मांकी मोहनिन्द्रा भग्न हुई । ( १० ) भरत चक्रवर्ती छहखण्ड विजय करके नृपभाचल पर्वत पर अपना नाम अंकित करने जब गये, तब उन्हें अभिमान हुआ कि, मैं ही एक ऐसा प्रथम चक्रवतीं हूँ जिसका नाम पर्वत पर सबमें शिरोमणि होगा । किन्तु पर्वत पर पहुंचते ही उनका माग गर्व खर्व होगया | जब उन्होंने देखा कि यहां तो नाम लिखने तक को स्थान नहीं । न जाने कितने और पहले चक्रवर्ती होकर यहां नाम लिख गये हैं। तब लाचारीको उन्हें एक नाम मिटाकर अपना नाम अंकित करना पड़ा | ( ११ ) हज़रत हुए बली अयूब मुसलमानांके एक बहुत माने हुए 1 वे बड़े दयालु थे । उनके सीने में ज़न्म हो गये थे और उनमें कीड़े पड़ गये थे । एक रोज़ आप मदनमें एक स्थान पर खड़े हुए थे कि चन्द की ज़ख्म में निकलकर ज़मीनपर गिर पड़े। तब आपने वे कीड़े ज़मीन से उठाकर दुबारा अपने ज़ख्म में रख लिये। लोगों के पूछने पर हज़रतने फर्माया कुदरतने इन कीड़ोंकी खुराक यहीं दी है, अलहदा होने पर मर जाएँगे । जब हम किसी में जान नहीं डाल सकते, तब हमें उनकी जान लेनेका क्या हक हैं ?"
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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