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कहानी
भाईका प्रेम लावू नरेन्द्रप्रसाद जैन बी.ए.
मनमें प्रेम की एक अजीब चीज़ है। कभी वह मेम भाश्म है तुम मेंदी इस अभिवापाको दुम्मानोगे नहीं।"
से उतार कर देता है वहीसे बड़ी कुर्वानी करने और उन्होंने माँ कर ली थी। इस शब्दोंने ही : पर, भले के लिये । उसके बारे में वह पागल बन विनोदको अपना कर्तव्य मुका दिया था। मासे उनके जाता है-दीवाना हो जाता है। कभी बह मेम उसे जीवनका देस्य केवल विषाको मुखी करना था। जार:जार खाता है, अपने कुटुम्बके प्राणियों की दुर्दशा, शादी के पैगाम पाते, पर वे दुका देते । प्रेमकी सरितापर जोर कमी बदम उस ऊँची अवस्थाको पहुँच का दो भागों में मैट गाना उनके लिये सब था। उन्हें जाता है या महम्बकका एक दरिया, उसके दिल में हर था कि कहीं कोई गुखची भाकर उनकी भागमचोंकी बहता और सास . गत उसमें समा जाता है। खताचोंको तहस नहस न कर ले । मित्रों ने प्रोफेसर विनोदक मेम दूसरे प्रकारका था । उनकी भी समकाग, सैंकडोंने विश्वास विनावा; परन्तु वे राजी महुपकी एक निझा थी, लेकिन बहुत.कोटी, केवल न हुए। ....
.. .. अपने कोरे भाई दिखा सकही सीमित । उनको जलत . . ॐ . . ... भी.मी कि उसका संस्बर अफ और बड़े । वे उसे जी- माता पिताकी गोदसे बिछुदा हुमा यह दिनेश भी जानो प्यार करते थे। अपना सारा भादाम, सारा सुख , उनको भूल चुका था। एक सप्पसा जगता और स्वप्न उस पर सीकर निमारक थे। मौनोंको समन भी धीरे धीरे मिशीन सेवा जावा यासकियाँ तापी विदिशाका मन किसी प्रकार मैटा नहो। लेहा ला विनोबा प्रेमके प्रवाह सागरने । बाउको. कमी गाहा जाये तो सबा गणको उसीकी पारखताती कितनी महुम्पत करता था, इसका समयानुमान नहीं । रहती। इसका मी एकदा कारभार अनमें - जब वे कालिजसे भाते तो कितने उहाससे वह अपनी सामान्य पूजते रहते थे जो कि बनके पिताने नहीं कहीं बाहें फैला रेता, उसे अपने हमसे
रुदन बा, कितनी बदी भाकल थी। उन्होंने कहा वेदी महासाते, जोहोरो न हावाहो पा-"बेटा विनोद ! मैं मर रहा हूँ पर मरना नहीं गया, पुन समझाते, पर उसे तसही न मिलती । एक चाहता, दिन और देखना चाहता था अपनी इस बार विधाको पुनार भागपा, दिनेश पर तो मानों दुलपारीको लाते हुए । देखना, मेरे उस को विपत्तिका पहारी दूर पहा हो, मानों उसी शुलीका रेसचे सारे बासरे पर, को मारमा परमा सूज गया हो । उसले बाबा विधानाबाबा, हूँ। उसे सुनकर मेरी मात्माको शांति मिलेगी। सब नौमोंने समझावा, पर बहन मानावे डसे