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________________ २; किरण:. रायचन्द माईक कुछ संस्मरण re - जन्हें बलात्कार गहरे पानीमें ले गई । ऐसे कार्य- इस तरहके अपवाद होते हुए भी व्यवहारको दोषरूपसे भी लगभग सम्पूर्ण आत्मानों में ही कुशलता और धर्म-परायणताका सुन्दर मेल जितना माना जा सकता है। हम सामान्य मनुष्य तो परोप- मैंने कविमें देखा है। उतना किसी दूसरे में कारी कार्यके पीछे अवश्य पागल बन जाते हैं, देखनेमें नहीं आया। तभी उसे कदाचित् पूरा कर पाते हैं। इस विषयकों धर्म इतना ही लिखकर समाप्त करते हैं। रायचन्द भाईके धर्मका विचार करनेसे पहले ." यह भी मान्यता देखी जाती है कि धार्मिक यह जानना आवश्यक है कि धर्मका उन्होंने क्या मनुष्य इतने भोले होते हैं कि उन्हें सब कोई ठग स्वरूप समझाया था। सकता है। उन्हें दुनियाकी बातोंकी कुछ भी न बर धर्मका अर्थ मत-मतान्तर नहीं । धर्मका अर्थ नहीं पड़ती। यदि यह बात ठीक हो तो कृष्णचन्द शास्त्रों के नामसे कही जानेवाली पुस्तकोंका पदजाना, और रामचन्द दोनों अवतारोंको केवल संसारी कंठस्थ करलेना, अथवा उनमें जो कुछ कहा, मनुष्योंमें ही गिनना चाहिये। कवि कहते थे कि उसे मानना भी नहीं है। जिसे शुद्धज्ञान है उसका ठगा जाना असंभव होना धर्मात्माका गण है और वह मनष्य जाति. चाहिये । मनुष्य धार्मिक अर्थात नीतिमान होनेपर में दृश्य अथवा अदृश्यरूपसे मौजूद है। धर्मसे हम भी कदाचित ज्ञानी न हो परन्तु मोक्षके लिये नीति मनुष्य जीवनका कतव्य समझ सकते हैं। धर्मद्वारा और अनुभवज्ञानका सुसंगम होना चाहिये। जिसे हम दूसरे जीवों के साथ अपना सबा संबन्ध पह. अनुभवज्ञान होगया है, उसके पास पाखण्ड निभ चान सकते हैं । यह स्पष्ट है कि जबतक हम अपने ही नहीं सकता। सत्यके पास असत्य नहीं निभ को न पहचान लें, तबतक यह सब कभी भी नही सकता । अहिंसाके सानिध्य में हिंसा बंद हो जाती हो सकता । इसलिये धर्म वह साधन है जिसके है। जहाँ सरलता प्रकाशित होती है वहाँ छलरूपी द्वारा हम अपने आपको स्वयं पहिचान सकते हैं। अंधकार नष्ट होजाता है । ज्ञानवान और धर्मवान यह साधन हमें जहाँ कहीं मिले, वहींसे प्राप्त यदि कपटीको देखे तो उसे फौरन पहिचान लेता है, करना चाहिये । फिर भले ही वह भारतवर्षमें मिले, और उसका हृदय दयासे आई होजाता है। जिमने चाहे यूरोपसे आये या परबत्तानसे पाये । इन श्रात्मको प्रत्यक्ष देख लिया, वह दूसरको पहिचाने माधनं का सामान्य स्वरूप समस्त धमशास्त्रों में बिना कैसे रह सकता है ? कविके मम्बन्ध में यह एक ही सा है । इस बातको वह कह सकता है नियम हमेशा ठीक पड़ता था, यह मैं नहीं कह जिमने भिन्न-भिन्न शास्त्रों का अभ्यास किया है। मकता । कोई कोई धर्मके नाम पर उन्हें टग भी ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं कहता कि असत्य बोलना लेते थे। ऐसे उदाहरण नियमकी अपूर्णता सिद्ध चाहिये, अथवा असत्य पाचरण करना चाहिये। नहीं करते, परन्तु ये शुद्ध ज्ञानकी ही दुर्लभता सिद्ध हिंसा करना किसी भी शास्त्र में नहीं बताया। करते हैं। ममम्त शास्त्रोंका दोहन करते हुए शंकराचार्यने
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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