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अनेकान्त
ज्येष्ठ वीर निवार्ण ०२४६५
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हो जाता, तो उनके पास पड़ी हुई धार्मिक पुस्तक यद्यपि कर्तव्य करते हुए शरीर तक भी समैपैण अथवा कापी, जिसमें वे अपने उद्गार लिखते थे, कर देना यह नीति है, परन्तु शक्तिसे अधिक खुल जाती थी। मेरे जैसे जिज्ञासु तो उनके पास बोझ उठा कर उसे कर्तव्य समझना यह राग है । रोज आते ही रहते थे और उनके साथ धर्म-चर्चा ऐसा अत्यंत सूक्ष्म राग कविमें था, यह मुझे करनेमें हिचकते न थे। 'व्यापारके समयमें व्यापार अनुभव हुआ। और धर्मके समयमें धर्म' अर्थात् एक समयमें एक बहुत बार परमार्थ दृष्टि से मनुष्य शक्तिसे ही काम होना चाहिये, इस सामान्य लोगोंके अधिक काम लेता है और बादमें उसे पूरा करनेसुन्दर नियमका कवि पालन न करते थे। वे में उसे कष्ट सहना पड़ता है। इसे हम गुण समझते शतावधानी होकर इसका पालन न करें तो यह हैं और इसकी प्रशंसा करते हैं । परन्तु परमार्थ हो सकता है, परन्तु यदि और लोग उसका उल्लं. अर्थात धर्म-दृष्टिसे देखनेसे इस तरह किये हुएघन करने लगें तो जैसे दो घोड़ों पर सवारी करने काममें सूक्ष्म मूर्खाका होना बहुत संभव है। वाला गिरता है, वैसे ही वे भी अवश्य गिरते। यदि हम इस जगतमें केवल निमित्तमात्र ही सम्पूर्ण धार्मिक और वीतरागी पुरुष भी जिस हैं, यदि यह शरीर हमें भाड़े मिला है, और उस क्रियाको जिम समय करता हो, उसमें ही लीन हो मार्गसे हमें तुरंत मोक्ष-साधन करना चाहिये, जाय, यह योग्य है। इतना ही नहीं परन्तु उसे यही यही परम कर्तव्य है, तो इस मार्गमें जो विघ्न आते शोभा देता है। यह उसके योगकी निशानी है। हो उनका त्याग आवश्य ही करना चाहिये; यही इसमें धर्म है। व्यापार अथवा इसी तरहकी जो पारमार्थिक दृष्टि है दूसरी नहीं। कोई अन्य क्रिया करना हो तो उसमें भी पूर्ण जो दलीलें मैंने ऊपर दी हैं, उन्हें ही किसी एकाग्रता होनी ही चाहिये । अन्तरंगमें श्रात्म- दूसरे प्रकारसे रायचन्द भाई अपनी चमत्कारिक चिन्तन तो मुमुक्षु में उसके श्वासकी तरह सतत भाषामें मुझे सुना गये थे । ऐसा होने पर भी चलना ही चाहिये । उससे वह एक क्षणभर भी उन्होंने कैसी कैसी व्याधियाँ उठाई कि जिसके फल वंचित नहीं रहता । परन्तु इस तरह आत्मचिन्तन स्वरूप उन्हें सख्त बीमारी भोगनी पड़ी ? करते हुए भी जो कुछ वह वाह्य कार्य करता हो वह रायचन्द भाईको भी परोपकारके कारण • उसमें तन्मय रहता है।
मोहने क्षण भरके लिये घेर लिया था, यदि मेरी मैं यह नहीं कहना चाहता कि कवि ऐसा न यह मान्यता ठीक हो तो 'प्रकृति पाति भूतानि करते थे। ऊपर मैं कह चुका है कि अपने व्यापार- निग्रहः किं करिष्यति' यह श्लोकार्ध यहाँ ठीक में वे पूरी सावधानी रखते थे। ऐसा होने पर भी बैठता है और इसका अर्थ भी इतना ही है। मेरे ऊपर ऐसी छाप जरूर पड़ी है कि कविने कोई इच्छापूर्वक बर्ताव करने के लिये उपयुक्त अपने शरीरसे आवश्यकतासे अधिक काम लिया कृष्ण-वचन का उपयोग करते हैं, परन्तु वह तो है । यह योगकी अपूर्णता तो नहीं हो सकती ? मर्वथा दुरुपयोग है । रायचन्द भाईकी प्रकृति