SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपरम्भा वर्ष २ किरण १] बहुत-दिनसे आपके नामकी माला जपती श्रारही उसकी प्राण-रक्षाके निमित्त मुझे सब कुछ करना हैं। अब उनका जीवन केवल आपके कृपा-दान होगा। जाओ उसे शीघ्र ही मेरे समीपले श्राओ। पर ही निर्भर है। उनका हृदयांचल सिर्फ एक वस्तु मैं उसकी प्रतीक्षामें हूँ।' चाहता है-मिलन या मृत्यु ।'-विचित्र-मालाने ___ दासीके हर्षका क्या ठिकाना ? वह वाणीसे, स-शीघ्र स्वामिनीका सन्देश सामने रख दिया। आकृतिसे, सारे शरीरसे अभिवादन करती, उधर-कठिनता-पूर्वक महाराज रावण, खेमेसे बाहर निकली। उसके हृदय में सफल-चेष्ठामर्यादा और उज्वल चरित्रके उपासक-उपयुक्त- की खुशी लहरें ले रही थी। शब्दोंको सुन सके । जैसेही दासीका मुँह बन्द हुआ कि दोनों कानोंपर हाथ रख, खेद-भरे स्वरमें धन्य ! उस यौवन और सौन्दर्यकी मूर्तिमान बोले-'उफ् ! उफ् !! यह मैं क्या सुन रहा हूँ। यह प्रतिमा-उपरम्भा को देखकर भी रावणका हृदय जघन्य-पाप ॥ भद्रे ! अपनी स्वामिनीसे कहना किन विचलित न हुा । वह अटल-भावसे उसकी ओर मैं पर-नारी को अंगदान देने के लिये दरिद्री हूँ। देखता रहा। एक-दम असमर्थ हूँ। मुझसे ....... ।' उपरम्भाकी वेश-भूषा आज नित्यकी अपेक्षा दासी अवाक् ! कहीं, बहुमूल्य, आकर्षक और नेत्रप्रिय थी । उसने .. यह मनुष्य है या देवता ? · · · गृहस्थ है या था आज लगनके साथ शृंगार किया था। भूषणोंके वासना-विजयी-साधु ? दुर्लभ प्राप्त प्रेमीकी यह १ आधिक्यके कारण वह भारान्वित थी अवश्य । अवहेलना ?--यह निरादर ? । पर उसका पैर आज फूल-सा पड़ता था। मनमें __उसी समय बराबरके शिबिरका पट-हिला। खुशी जो थी, फूल जो थी। ... महाराज रावण उधर चले। सामने विभीषण। वह आई । उसने अभिवादन किया। रावणने वह बोले-'भूलते हो-भाई ! यह राजनीति हैं। एक मधर-मुस्कानमें उसका प्रत्युत्तर दिया। संकेत केवल सत्यसे यहाँ काम नहीं चलता।इसे प्राप्त कर, योग्य-स्थानपर वह बैठ गई। ऐसा कोरा जवाब न दो। अवश्य ही उपरम्भा वश होकर गढ़-विजयकी कोई गुप्त-युक्ति बतलाएगी। वह मधु-निशीथ ! चतुर्दिक नीरवताका क्या तुम्हें मालूम नहीं, नल कुँवरने कैसा दुर्भेद्य, साम्राज्य। बाहर ज्योत्स्ना रजत-राशि बखर रही मायामयी प्रासाद निर्माण किया है ? जिसके समीप थी।मलय-समीर मन्थर-गतिसे बिहार कर रहाथा। जाना तक दुरूह । -और उसी समय, उस भव्य खेमेमें उपरावण लौटे । मुखपर प्रसन्नता थी। बोले- रम्भाने अपनी मधुर-ध्वनि-द्वारा निस्तब्धता भंग 'मैं ऐसा जघन्य-पाप हर्गिज न करता। लेकिन की।जब वह प्राणन्त तकके लिए उद्यत है, तो ... 'प्राणेश्वर ! मेरी अभिलाषा आप तक पहुँच
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy