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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
दसर
दिन
चुकी है। और आपने उसका सन्मान भी किया कि उसके पतिका कितना पराभव होगा, क्या है। अब इस वियोगाग्निको अंग-दान द्वारा शान्ति होगा; गढ़-ध्वंस-कारिणी-विद्या रावणको दे ही दी। दीजिए। विलम्ब असहनीय बन रहा है-प्रभु ! ओफ़् ! नारीके विचलित-हृदय ! आओ ...।'
तभी उसने बढ़कर महाराज रावणके कण्ठमें अपनी बाहु-पाश डालनी चाही । रावणने देखाउपरम्भाके हृदय में वासना आँधी-प्रलयका सन्देश वह दुर्भेद्य-नगर महाराज-रावणके आधीन सुना देनेके लिए व्यग्र होरही है। आँखें उन्मादसे था। सारी प्रजाके मुँहपर रावणके नामका जयघोष
ओत-प्रोत होरही हैं। वाणीमें विव्हलता समाचुकी था। वह भयंकर मायापूर्ण-दुर्ग विलीन हो चुका है। और वह एक दम पागल है। उसे अपनी था। कलतक सिंहासनपर विराजने वाले महाराज मर्यादाका ध्यान नहीं।
नलकुँवर आज बन्दीके रूपमें-रावणके प्रचण्ड___ 'भद्रे ! तुम्हारी इच्छा मुझसे छिपी नहीं। तेजके आगे खड़े हुएथे। शेष सब ज्योंका त्यों
था। ... मेरी इच्छा भी तुम्हारे अनुकूल ही है । परन्तु थोड़ा अन्तर है । मैं चाहता हूँ तुम्हारा समागम स्वाधी- उपरम्भा अपने पतिके समीप खड़ी हुई थी। नतापूर्वक राज-प्रासादके भीतर ही हो । यों जंगलों- हृदयमें द्वन्द चल रहा था-पता नहीं कैसा ... ? में पशुओंकी तरह क्या आनन्द ? कहो, तुम सब दरबारी उपस्थित थे। क्या सम्मति रखती हो ? . . . ' रावणने उसके 'सुनो ।'-रावणने उपरम्भाको संकेत आलिंगन-अवसरको व्यर्थ करते हुए, जरा मिठास- करते हुए कहा-'तुम स्वयं जानती हो, पूर्वक पूछा।
पर-पुरुष-संगम कितना जघन्य-पाप है । और इसके __...' जैसी तुम्हारी इच्छा हो-प्यारे ! तुम्हारी अतिरिक्त-तुमने मुझे विद्यादान दिया है, अतः खुशीमें ही मेरा श्रानन्द है, सुख है !! . . . . '
तुम मेरी 'गुरानी' हो, पूज्य हो । मैं तुम्हारे -उपरम्भाके उत्तेजित-मनने व्यक्त किया।
आनन्द, सुख और सम्भोगके लिए महाराज नल'तो उस मायामय-गढ़-ध्वंसका उपाय . . . ?'
कुँवरको बन्धन-मुक्त कर तुम्हें देरहा हूँ। जाओ, -बातको बहुत साधारण ढंगकी बनाते हुए, रावण- उनके साथ आनन्द करो। पुरुष-पुरुषमें कोई भेद ने प्रश्न किया।
नहीं, मुझे क्षमा करो।... 'उपाय · · ?–जब तुमसे मेरी इच्छा छिपी उपरम्भाका हृदय आत्म-ग्लानिसे भर गया। न रह सकी, तो उपाय कैसे रह सकता है । सुनो उसने समझा-रावण कितना महान है ! कितना गढ़-ध्वंशका उपाय यह है कि ...... .. ...
उच्च है ! वह पुरुष नहीं, पुरुषोत्तम है ! वन्दनीय -और उस मुग्धाने बगैर इसकी चिन्ता किये है !! ......