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अनेकान्त _[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ 'तो' ?'-विचित्रमालाने स्वयं भी कुछ पर डाली, वे बोले-साक्षात् करने में कोई हानि कहना चाहा । पर महारानीने मौका ही न दिया ! नहीं ! सम्भव है, गढ़विजयकी कोई युक्ति बतवह बोलीं-'मैं वुछ सुनना नहीं चाहती-विचित्र- लाये ।' माला ! बस, मुझे तो कहनाही है, सिर्फ कहनाभर ! और शायद अन्तिम ! • 'अगर तुम मेरा
_ 'अच्छा भेजदो, पिछले खेमेमें ।' जीवन चाहती हो, तो मुझे आज उनसे मिलादो,
___ 'जो आज्ञा !'-प्रहरी चला गया। नहीं, मैं आत्मघातकर प्यारेकी आराधना-वेदीपर
लंकेश एकान्त-खेमेमें उसकी प्रतीक्षा करने बलिदान होजाऊँगी।'
लगे। विभीषण बराबरके शिविरमें विराजे रहे।
उसी समय, श्याम-वस्त्रोंसे सुसज्जित विचित्र 'इतनी कठिनता न अपनाओ-स्वामिनी, मालाने प्रवेश किया ! मुझपर विश्वास रखो, मैं अभी उनसे जाकर निवेदनकर , तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण कराऊँगी। मेरा धर्म तुम्हारी आज्ञा पालनमें है , इसे मैं खूब
... · उनका नाम है-उपरम्भा ! हैं तो नारी, जानती हूँ। धैर्य रखो-मैं इस कार्यमें जो बन परन्तु किन्नरी भी उनके सौन्दर्यका लोहा मानती पड़ेगा, सब करूंगी।'
है। वह पृथ्वीकी रम्भा हैं । चाँद-सा बदन, महारानी गद्गद होगई।
कोयल-सा स्वर, मराल-सी गति और सौन्दर्यकी दूसरे ही क्षण विचित्रमाला महारानीकी साक्षात प्रतिमूर्ति ! यौवनका विराम-सदन ! महासुदीर्घ, कोमल, बाहु-पाशमें आबद्ध थी। राज नल-कुंवर, जिनकी यशस्विता सर्वत्र व्याप्त
है, उनकी प्राण-प्यारी पटरानी हैं--वह !'दासीने अपनी सफलताकी भूमिका बाँधी ! लेकिन
दशाननने मुँहपर अरुचिका भाव लाते हुए कहा'कौन ? महाराज नलकुँवरकी पटरानी उपरम्भाकी दासी... ? ...'
'अच्छा । अब मतलबकी बात कहो।' 'हाँ, महाराज!'
दासी चुप । ... क्या ये बे मतलबकी बाते 'क्या चाहती है ?-इतनी रात बीते यहाँ हैं ? . . ' व्यर्थ हैं . . . ?'-वह फिर कहने लगीआनेका कारण ?
'मैं महारानी उपरम्भाकी अन्तरंग-सखी हूँ, मुझे 'ज्ञात नहीं ! वह आपसे एकान्तमें मिलनेकी उन्हींने आपके पास भेजा है।' इच्छा प्रगट करती है ! बतलाती है, बात अत्यन्त
'किसलिए ?'—ांभीर प्रश्न हुआ। गोपनीय है, प्रगट नहीं की जासकती।'
इसलिए कि वह आपपर मोहित हैं। आपकी ..'लंकेश्वरने एक भेद-भरी दृष्टि विभीषण कृपा-काँक्षिणी हैं । संयोग-याचना करती हैं । वह
"
गदहागइ।