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________________ वर्ष २ किरण १] वह सब कुछ कर सकता है। उसकी शक्ति सामर्थ्य सुदूर - सीमावर्तिनी है ।' उपरम्भा मनके संघर्ष को दबाये, वह स्वामिनीकी तरफ देखती - भर रही। इस आशासे कि वे कुछ स्पष्ट कहें। और तभी स्वामिनीके युगल - अधरोंमें स्पन्दन हुआ । शुभ्रदन्त-पंक्तिको सीमित कारावासके बाहर क्या है ? - यह देखनेकी इजाजत मिली, अरुण, कोमल कपोलों पर लालिमाकी एक रेखा खिंची । पश्चात् — नव-परिणीता- पत्नीकी भाँति सलज्जवारणी प्रस्फुटित हुई!– 'तू मेरी प्यारी सहेली है, तुझसे मेरा क्या छिपा है | कुछ छिपाया भी तो नहीं जासकता । भेदकी गुप्त-बात तुझसे न कहूँ तो, कहूँ फिर किससे...?—-सखीको छोड़, ऐसा फिर कौन ?... मेरे दुख-सुखकी बात ।' रानी साहिबा - ने बातको अधूरा ही रहने दिया । बात कुछ बन ही न पड़ी इसलिये, या देखें सखीका क्या आइडिया है - अभिमत है, यह जाननेके लिए । १७ उसे पूर्णताका रूप देना- मेरा काम ! मैं उसे प्राणों की बाजी लगाकर भी पूरा करनेकी चेष्ठा करूँगी । सखीको महारानीसे कुछ प्रेम था, सिर्फ वेतन या दासित्व तक की ही मर्यादा न थी । समस्याका कुछ आभास मिलते ही उसने अपने हृदय उद्गारोंको बाहर निकाला- आप ठीक कह रही हैं, महारानी, कोई भी बात आपको मुझसे न छिपाना चाहिये । और मैं शक्ति-साध्य कार्य भी यदि आपके लिये सम्पन्न न कर सकी तो — मेरा जीवन धिक्कार । आप विश्वास कीजिए— मुझसे कही हुई बात आपके लिये सुखप्रद हो सकती है। दुखकर कदापि नहीं । आपकी अभिलाषाको मुझ तक आना चाहिये, बगैर संकोच, झिझकके ! इसके बाद 'लेकिन सखी! बात इतनी घृणित है, इतनी पाप -पूर्ण है, जो मुँह से निकाले नहीं निकलती । मैं जानती हूँ - ऐसा प्रस्ताव मुझे मुँहपर भी न लाना चाहिए। मगर लाचारी है, हृदय समझाये नहीं समझता । एक ऐसा नशा सवार है, जो-या तो मिलन या प्रारण-विसर्जन- पर तुला बैठा है। मैं उसे ठुकरा नहीं सकती। कलंक लग जायेगा, इसका मुझे भय नहीं । लोग क्या कहेंगे, इसकी मुझे चिन्ता नहीं । मैं...तो बस, अपने हृदय के ईश्वरको चाहती हूँ । .- महारानी के विव्हलकण्ठने प्रगट किया । शायद और भी कुछ प्र होता, कि विचित्रमालाने बीच ही में टोका'.. परन्तु वह ईश्वर है कौन ? ' 1 6.. ‘लंकेश्वर-महाराज-रावण !' - अधमुँदी - आँखोंमें स्वर्ग-सुखका आव्हान करती -सी, महारानी कहने लगी - ' शायद तू नहीं जानती ! मैं उस पुरुषो - तमपर, आजसे नहीं विवाहित होने के पूर्व से ही, प्रेम रखती हूँ, मोहित हूँ | तभीसे उसके गुणोंकी. रूपकी, और वीरताकी, हृदयमें पूजा करती रही हूँ । लेकिन कोई उचित, उपयुक्त अवसर न मिलनेसे चुप थी, परन्तु — श्रब ं 'आज वह शुभ दिवस सामने है, जब मैं उसतक अपनी इच्छा पहुँचा सकूं। उसके दर्शनकर, चरणों में स्थान पाकर, अपनी अन्तराग्नि शान्त कर सकं !! वह आज समीप ही पधारे हैं। हमारे देशपर विजयपताका फहराना उनका ध्येय है। काश ! उन्हें मालूम होता कि देशकी महारानीके हृदयपर वह कबसे शासन कर रहे हैं !"
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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