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उपरम्भा
[लेखक-श्री भगवत्स्वरूप जैन 'भगवत्']
मर्यादा पुरुषोत्तम-रामकी-प्राणेश्वरी-सीता- आश्चर्यप्रद था। जिसकी कल्पना तक उसके हृदय
- का रावणने हरण किया। इस कृत्यने संसार- में मौजूद न थी। की नजरों में उसे कितना गिराया,यह आप अच्छी उसने अनुभव किया--आज उसकी स्वामिनीकी तरह जानते हैं। लेकिन क्या आप यह भी जानते मनोवृत्ति में आमूल परिवर्तन है । स्वभावत: मुख हैं कि वह कितना महान था ? उसकी जीवन-पुस्तक
मण्डलपर विराजने वाला तेज, दर्प, विलीन हो में केवल एकही पृष्ठ है । 'जो दूषित है । वरन
चुका है। वाणी की प्रखरतामें याचक-कण्ठ की सारी पुस्तक प्यारकी वस्तु है । इसे पढ़िये कोमलता छिप गई है। उसके व्यवहारमें आज इसमें चित्रका दूसरा पहलू है । जो .. .. ... .!'
शासकता नहीं, दलित-प्रजाकी क्षीण-पुकार अव__ [१]
शिष्ट है । लेकिन यह सब है. क्यों ?-यह वह अन्तःपुरमें
न समझ सकी। ..........और कुछ देर तक तो विचित्र
उस सुसज्जित-भव्य-भवन में केवल दो-ही
तो हैं। फिर उसकी स्वामिनी हृदयस्थ-बातको माला' स्वामिनीके हृदयरहस्यसे अनिभिज्ञ ही
क्यों इतना संकोचके साथ बयान करना चाहती रही। स्पष्ट भाषा और विस्तृत-भूमिका कही जानेपर
है ? क्या वास्तवमें कोई गूह-रहस्य है ?.. 'और भी उसकी समझमें कुछ न आया।
वह रहस्य कहीं प्रेम-पथका तो नहीं ? वह चतुर थी। दासित्व का अनुभव उसका नारी-हृदयका अन्वेषण-कार्य प्रारम्भ हुआ। बहुत पुराना था। स्वामिनीका 'रुख' किधर है, वह विचारने लगी इतने बड़े प्रतापशाली महाराजयह बात वह अविलम्ब पहिचान लेती थी। किन्तु की पटरानी क्या किसीका हृदयमें आव्हान कर
आज, जैसे उसकी समग्र चतुरतापर तुषार-पात हो सकती है ? छिः पर-पुरुष। ...कोरी विडम्बना !!" गया । यह पहला मौका था, जब वह इस तरह परास्त हुई । शायद इसलिए कि उसकी स्वामिनोने पर उसी समय, उसकी एक अन्तरशक्तिने आज जो कार्य सौंपा, जो प्रस्ताव सामने रखा, वह इसकी प्रतिद्वन्दता स्वीकारकी। ...... हाँ, हृदय, सर्वथा नवीन, सर्वथा अनूठा और सर्वथा हृदय है। उसका तकाजा ठुकराया नहीं जाता।