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________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५ ] सेवाधर्म - दिग्दर्शन छोटों - असमर्थों, अथवा दीन-दुःखियों आदिकी सेवा में क्या धरा है ? ऐसा समझना भूल होगा । जितने भी बड़े पूज्य, महात्मा अथवा महापुरुष हैं वे सब छोटों, असमथों, असहायों एवं दीनदुःखियोंकी सेवा से ही हुए हैं-सेवा ही सेवकको सेव्य बनाती अथवा ऊँचा उठाती है। और इस लिये ऐसे महान् लोक-सेवकोंकी सेवा अथवा पूजा भक्ति का यह अभिप्राय नहीं कि हम उनका कोरा गुणगान किया करें अथवा उनकी ऊपरी (औपचारिक) सेवा चाकरी में ही लगाये रक्खें - उन्हें तो अपने व्यक्तित्व के लिये हमारी सेवाकी जरूरत भी नहीं है - कृतकृत्योंको उसकी जरूरत भी क्या हो सकती है ? इसी से स्वामी समन्तभद्रने कहा है - " न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे" - अर्थात हे भगवन्, पूजा भक्तिसं आपका कोई प्रयोजन नहीं है; क्योंकि आप वीतरागी हैं- रागका अंश भी आपके आत्मामें विद्यमान नहीं है, जिसके कारण किसीकी पूजा-संवासे आप प्रसन्न होते । वास्तव में ऐसे महान् पुरुषांंकी सेवा - उपासनाका मुख्य उद्देश्य उपकारस्मरण और कृतज्ञता व्यक्तीकरण के साथ ' तद्गुणलब्धि' – उनके गुणोंकी संप्राप्ति होता है । इसी बात को श्री पूज्यपादाचार्यने 'सर्वार्थ सिद्धि' के मंगलाचरण (‘मोक्ष मार्गस्यनेतारं ' इत्यादि) में "वन्दे तद्गुणलब्धये" पदके द्वारा व्यक्त किया है । तद्गुण लब्धिके लिये तद्रूप आचरणकी जरूरत है, और इसलिये जो तद्गुण लब्धिकी इच्छा करता है वह पहले तद्रूप आचरण को अपनाता है - अपने आराध्य के अनुकूल वर्तन करना अथवा उसके नक़शेकदम पर चलना प्रारंभ 1 ५१ करता है। उसके लिये लोकसेवा अनिवार्य हो जाती है - दीनों, दुःखितों, पीड़ितों, पतितों, अस हायों, असमर्थों, अज्ञों और पथभ्रष्टों की सेवा करना उसका पहला कर्तव्यकर्म बन जाता है । जो ऐसा न करके अथवा उक्त ध्येयको सामने न रखकर ईश्वर - परमात्मा या पूज्य महात्माओं की भक्तिके कोरे गीत गाता है वह या तो दभी है, ठग है – अपनेको तथा दूसरों को ठगता है - और या उन जड़ मशीनोंकी तरह अविवेकी है जिन्हें अपनी क्रियाओंका कुछ भी रहस्य मालूम नहीं होता । और इसलिये भक्तिके रूपमें उसकी सारी उछल-कूद तथा जयकारोंका - जय जयके नारोंका - कुछ भी मूल्य नहीं है । वे सब दंभपूर्ण अथवा भावशून्य होनेसे बकरी के गलेमें लटकते हुए स्तनों ( थनों) के समान निरर्थक होते हैंभी वास्तविक फल नहीं होता । - उनका कुछ महात्मा गांधीजीने कई बार ऐसे लोगों को लक्ष्य करके कहा है कि 'वे मेरे मुँह पर थूकें तो अच्छा, जो भारतीय होकर भी स्वदेशी वस्त्र नहीं पहनते और सिरसे पैर तक विदेशी वस्त्रोंको धारण किये हुये मेरी जय बोलते हैं। ऐसे लोग जिस प्रकार गांधीजी के भक्त अथवा सेवक नहीं कहे जाते बल्कि मजाक उड़ाने वाले समझे जाते हैं, उसी प्रकार जो लोग अपने पूज्य महापुरुषोंके अनुकूल आचरण नहीं करते - अनुकूल आचरण की भावना तक नहीं रखते - खुशी से विरुद्धाचरण करते हैं और उस कुत्सित आचरण को करते हुए ही पूज्य पुरुषकी वंदनादि किया करते तथा जय बोलते हैं, उन्हें उस महापुरुषको संवक अथवा
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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