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________________ अनेकान्त [ वर्ष २, किरण १ अवशिष्ट रहेगा ? इसे सहृदय पाठक स्वयं समझ सेवा कैसे उत्तम फलको फलती है । इसीसे उस सकते हैं। इसी तरह दूसरे धर्मो का हाल है, सेवा- पद्यको उनके 'स्तुतिविद्या' नामक ग्रन्थ (जिनशतक) धर्म की भावनाको निकाल देने से वे सब थोथे से यहाँ उद्धृत किया जाता है:और निर्जीव हो जाते हैं । सेवाधर्म ही उन सब , सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यर्चनं चापि ते में, अपनी मात्रा के अनुसार प्राणप्रतिष्ठा करने वाला है। इसलिये संवाधर्मका महत्व बहत ही हस्ताव जलये कथाश्रुतिरतः कर्णोऽति संप्रनते । बढ़ा चढ़ा है और वह एक प्रकार से अवर्णनीय सुस्तुत्यां व्यसनं शिरोनतिपरं सेवेशी येन ते है। अहिंसादिक सब धर्म उसीके अंग अथवा तेजस्वीसुजनोऽहमेव सुकृत तेनैव तेजःपते ॥११४॥ प्रकार हैं और वह सब में व्यापक है। ईश्वरादिक इसमें बतलाया है कि-'हे भगवन् ! आपके की पूजा भक्ति और उपासना भी उसी में शामिल मतमें अथवा आपके ही विषयमें मेरी सुश्रद्धा है(गर्भित ) है, जो कि अपने पूज्य एवं उपकारी अन्धश्रद्धा नहीं-, मेरी स्मृति भी आपको ही पुरुषोंके प्रति किये जाने वाले अपने कर्तव्यके अपना विषय बनाये हुए है, मैं पूजन भी आपका . पालनादि स्वरूप होती है। इसी से उसको 'देव- ही करता हूँ, मेरे हाथ अोपको ही प्रणामांजलि सेवा' भी कहा गया है। किसी देव अथवा धमे करनेके निमित्त हैं, मेरे कान आपकी ही गुणकथा प्रवर्तकके गुणों का कीर्तन करना, उसके शासन सुननेमें लीन रहते हैं, मेरी आँखें आपके ही को स्वयं मानना सदुपदेशको अपने जीवन में रूपको देखती हैं, मुझे जो व्यसन है वह भी उतारना और शासन का प्रचार करना, यह सब आपकी ही सुन्दर स्तुतियों के रचनेका है और उस देव अथवा धर्म-प्रवर्तक की संवा हे और मेरा मस्तक भी आपको ही प्रणाम करनेग तत्पर इसके द्वारा अपनी तथा अन्य प्राणियोंकी जो वादी ___ रहता है। इस प्रकारकी चूँकि मेरी सेवा है-मैं सेवा होती है वह सब इससे भिन्न दूसरी आत्म - निरन्तर ही आपका इस तरह पर सेवन किया सेवा अथवा लोकसेवा है। इस तरह एक सेवा | करता हूँ-इसीलिये हे तेज:पते ! ( केवल ज्ञान में दूसरी सेवाएँ भी शामिल होती हैं। स्वामिन् ) मैं तेजस्वी हूँ, सुजन हूँ और सुकृति स्वामी समन्तभद्र ने अपने इष्टदेव भगवान् (पुण्यवान् ) हूँ।' महावीरके विषयमें अपनी सेवाओंका और अपने यहाँ पर किसीको यह न समझ लेना चाहिये को उनकी फलप्राप्तिका जो उल्लेख एक पद्यमें कि सेवा तो बड़ोंकी-पूज्य पुरुषों एवं महात्माओंकिया है वह पाठकोंके जानने योग्य है और उससे की होती है और उसीसे कुछ फल भी मिलता है, उन्हें देवसेवाके कुछ प्रकारोंका बोध होगा और - * समन्तभद्रकी देवागम, युक्त्यनुशासन और स्वयंभूस्तोत्र लम होगा कि सच्चे। नामकी स्तुतियाँ बड़े ही महत्वकी एवं प्रभावशालिनी हैं और और पूर्ण तन्मयताके साथ की हुई वीर-प्रभुकी उनमें सूत्ररूपसे जैनागम अथवा वीरशासन भरा पड़ा है। अगस साथ
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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