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सेवाधर्म-दिग्दर्शन
[सम्पादकीय ] अहिंसाधर्म, दयाधर्म, दशलक्षणधर्म, रत्नत्रय संवा बजानेवाले स्वयंसंवक में कितना बड़ा
"धर्म, सदाचारधर्म, अथवा हिन्दूधर्म, मुसल- अन्तर है। ऐसे लोग सेवाधर्म को शायद किसी मानधर्म, ईसाईधर्म, जैनधर्म, बौद्धधर्म इत्यादि धर्म धर्मकी ही सृष्टि समझते हों, परन्तु ऐसा समझना नामोंसे हम बहुत कुछ परिचित हैं; परन्तु 'सेवाधर्म' ठीक नहीं है। वास्तव में संवाधर्म सब धर्मो में हमारे लिये अभी तक बहुत ही अपरिचितसा ओत-प्रोत है और सबमें प्रधान है। बिना इस धर्म बना हुआ है। हम प्रायः समझते ही नहीं कि के सब धर्म निष्प्राण हैं, निसत्व हैं और उनका कुछ सेवाधर्मभी कोई धर्म है अथवा प्रधान धर्म है। भी मूल्य नहीं है। क्योंकि मन-वचन-कायसे स्वेच्छा कितनों ही ने तो संवाधर्मको सर्वथा शूद्रकर्म एवं विवेकपूर्वक ऐसी क्रियाओं का छोड़ना जो मान रक्खा है, वे सेवकको गुलाम समझते हैं किसी के लिये हानिकारक हों और ऐसी क्रियाओं
और गुलामीमें धर्म कहाँ ? इसीसे उनकी तद्रूप का करना जो उपकारक हों संवाधर्म कहलाता है। संस्कारोंमें पली हुई बुद्धि संवाधर्मको कोई धर्म मेरे द्वारा किसी जीवको कष्ट अथवा हानि अथवा महत्वका धर्म मानने के लिये तैय्यार नहीं- न पहँचे मैं सावद्ययोग से विरक्त होता हूँ, लोकवे समझ ही नहीं पाते कि एक भाडेके सेवक, संवाकी ऐसी भावना के बिना अहिंसाधर्म कुछ अनिच्छा पूर्वक मजबूरीसे काम करने वाले परतंत्र भी नहीं रहता और 'मैं दूसरों का दुख-कष्ट दूर संवक और स्वेच्छासे अपना कर्तव्य समझकर करने में कैसे प्रवृत्त हूँ' इस सेवा-भावनाको यदि सेवाधर्म का अनुष्ठान करने वाले अथवा लोक- दयाधर्मसे निकाल दिया जाय तो फिर वह क्या