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________________ वर्ष २, किरण ७] असारता का हूबहू चित्र अङ्कित किया गया है। इस शास्त्रका मुख्य उद्देश्य भिन्न-भिन्न रूपसे उपदेश द्वारा भावनाओं को स्पष्टतया समझाकर मोह-ममता के ऊपर दबाव डालना है । और मोह-ममताके दूर होने पर ही सुख-दुख समान हो सकते हैं। बुरे आचरणोंका त्याग, तत्व अध्ययनकी इच्छा, साधु-सन्तोंकी संगति, साधुजनोंके प्रति प्रीति, तत्त्वोंका श्रवण, मनन तथा अध्ययन, मियादृष्टिका नाश, सम्यकदृष्टिका प्रकाश, राग-द्वेष, क्रोधमान, माया, आदिका त्याग, इन्द्रियोंका संयम, ममताका परिहार, समताका प्रादुर्भाव, मनोवृत्तियों का निग्रह, चित्तकी निश्चलता, आत्मस्वरूपमें रम गता, सद्ध्यानका अनुष्ठान, समाधिका श्राविर्भाव, मोहादिक कर्मोंका क्षय और अन्त में केवलज्ञान तथा निर्वाणकी प्राप्ति | इस प्रकारका आत्मोन्नति का क्रम अध्यात्ममें भली भाँति दिया गया है । अनन्तज्ञानस्वरूप सच्चिदानन्दमय आत्मा कमोंके संसर्गसे शरीररूपी अंधेरी कोठरीमें बन्द है। कर्मके संसर्गका मूल अज्ञानता है, समस्त शाखावलोकन करके भी जिसको आत्माका ज्ञान प्राप्त न हुआ हो उसको अज्ञानी ही समझना उचित है। क्योंकि श्रात्मिकज्ञानके बिना मनुष्यका उच्च से उच्च ज्ञान भी निरर्थक है। और अज्ञातासे जो दुःख होता है वह आत्मिकज्ञान द्वारा ही क्षीण हो सकता है। ज्ञान और अज्ञानमें प्रकाश और अन्धकारके समान बड़ा अन्तर है। अंधकारको दूर करनेके लिये जिस प्रकार प्रकाशकी अत्यन्त आवश्यकता है उसी प्रकार अज्ञानको दूर करने के लिये ज्ञानकी आवश्यकता है। आत्मा जब तक कपायों, इन्द्रियों और मनके आधीन सुख-दुख REG रहता है, तबतक उसको सांसारिक सुख-दुखका अनुभव होता रहता है। किन्तु जब वही इनसे भिन्न हो जाता है— निर्मोही बन अपनी शक्तियोंको पूर्ण रूपसे विकसित करनेमें लग जाता है-सब 'मुमुक्षु' कहलाता है और अन्तको साधनाकी समाप्ति कर 'सिद्धात्मा' अथवा 'शुद्धात्मा' बन जाता है। क्रोधका निग्रह क्षमासे है, मानका पराजय मृदुतासे, मायाका संहार सरलतासे और लोभका विनाश संतोषसे होता है। इन कषायोंको जीतनेके लिये इन्द्रियोंको अपने वशमें करना आवश्यक है । इन्द्रियों पर पूर्णतया अधिकार जमानेके लिये मनःशुद्धिकी आवश्यकता होती है। मनोवृत्तियोंको दबानेकी आवश्यकता होती है। वैराग्य और सत्क्रियाके अभाव से मनका रोध होता हैमनोवृत्तियाँ अधिकृत होती हैं। मनको रोकने के लिये राग-द्वेषका दबाना बहुत आवश्यक है और राग-द्वेष के मैलको धोनेका काम समतारूपी जल करता है । ममता मिटे बिना समताका प्रादुर्भाव नहीं होता । ममता मिटानेके लिये कहा है: "नित्यं संसारे भवति सकलं यनयनगम्” अर्थात् — नेत्रोंसे इस संसार में जो कुछ दिखाई देता है वह सब अनित्य है--क्षण भंगुर है । ऐसी अनित्यभावना और इसीप्रकार दूसरी अशरणआदि भावनाएँ भावनी चाहिएँ । इन भावनाओंका वेग जैसे जैसे प्रबल होता जाता है वैसे ही वैसे ममत्वरूपी अन्धकार क्षीण होता जाता है और समताकी देदीप्यमान ज्योति जगमगाने लगती है। जब समताका आत्मामें प्रादुर्भाव हो जाता है तो सुख-दुख समान जान पड़ते हैं और मनुष्यमें प्रबल शान्ति विराजने लगती है। कृपय
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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