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ख -(लेखिका-श्री० लजावती जैन) संसारकी गति षड़ी विचित्र है, सुखके बाद दुख तरंगें मनको लुभाती हों, जहाँ मनुष्य मान और
और दुखके बाद सुख पाते रहते हैं। बल्कि विलासिताके हिंडोलेमें झूल रहा हो. और जहाँ यों कहिये कि संसारमें सुखी जीवोंकी अपेक्षा, तृष्णारूपी जलके प्रबल प्रवाहमें गिर कर मनुष्य दुखी जीवोंका क्षेत्र बहुत विस्तृत है । जनसमुदाय- बेसुध हो रहा हो, वहाँ रोग समझना कठिन ही में अधिक संख्या आधिव्याधि से परिपूर्ण है । दुख- नहीं, किन्तु असम्भव जैसा है। अपनी आन्तरिक का मुख्य कारण है वासना । हजारों प्रकारकी सुख- स्थितिका ज्ञान न रख सकने वाले व्यक्ति बिल्कुल सामग्री एकत्रित होने पर भी सांसारिक वासनाओं- नीचे दर्जेके होते हैं । जो जीव मध्यम श्रेणीके हैं, से दुखकी सत्ता भिन्न नहीं होती । प्रारोग्य शरीर, जो अपनेको त्रिदोषाक्रान्त समझते हैं-अपनेको लक्ष्मी, गुणवती सुन्दर स्त्री और सुयोग्य सदाचारी त्रिदोषजन्म उप्रतापसे पीड़ित मानते हैं और सन्तान आदिके प्राप्त होते हुए भी दुःखका संयोग- जो उस रोगके प्रतिकारकी शोधमें हैं, उनके लिये कारण कम नहीं होता । इससे यह स्पष्ट है कि आध्यात्मिक उपदेशकी आवश्यकता है। दुःखसे सुखको भिन्न करना और केवल सुख-भोगी 'अध्यात्म' शब्द 'अधि' और 'आत्म' इन दो बननेकी इच्छा रखना दुःसाध्य है।
शब्दोंके मेलसे बना है। इसका अर्थ है आत्माके सुख-दुःखका समस्त आधार मनोवृत्तियों पर शुद्ध स्वरूपको लक्ष्य करके उसके अनुसार व्यवहार है। महान धनी एवं ज्ञानवान व्यक्ति भी लोभ तथा करना । संसारके मुख्य दो तत्व हैं--जड़ और वासनाके वशीभूत होकर कष्ट उठाता है । निर्धन- चेतन, जिनमेंसे एकको जाने बिना दूसरा नहीं से निर्धन व्यक्ति भी सन्तोषवृत्ति के प्रभावसे मनके जाना जा सकता । ये आध्यात्मिक विषयमें अपना उद्वेगोंको रोककर सुखी रह सकता है। मनोवृत्तियों- पूर्ण स्थान रखते हैं। का विलक्षण प्रवाह ही सुख दुःखके प्रवाहका मूल आत्मा क्या वस्तु है ? आत्माको सुख-दुखका है। जो वस्तु आज रुचिकर और प्रिय मालूम होती अनुभव कैसे होता है ? सुख-दुखके अनुभवका है, वह ही कुछ समय बाद अरुचिकर प्रतीत होने कारण आत्मा ही है या किसी अन्यके संसर्गसे लगती है। इससे यह बात स्पष्ट है कि बाघ पदार्थ आत्माको सुख-दुखका ज्ञान होता है ? आत्माके सुख-दुखके साधक नहीं हैं, बल्कि उनका आधार साथ कर्मका क्या सम्बन्ध है ? वह सम्बन्ध कैसे हमारी मनोवृत्तियोंका विचित्र प्रवाह ही है। होता है ? तथा आदिमान है या अनादि ? यदि ___ राग, द्वेष और मोह ये मनोवृत्तियोंके विशेष- अनादि है तो उसका उच्छेद कैसे हो सकता है ? रूप अथवा इन्हीं पर समस्त संसार चक्र चल रहा कर्मके भेद-प्रभेदोंका क्या हिसाब है ? 'कार्मिक है। इस त्रिदोषको दूर करनेका सरल उपाय सत्- बन्ध, उदय ओर सत्ता कैसे नियम बद्ध हैं ? अध्याशास्त्रावलोकनके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। त्ममें इन सब बातोंका यथेष्ट विवेचन है और इनकिन्तु मनुष्यको मैं रोगी हूँ, मुझे कौनसा रोग है, का पूर्णरूपसे परिचय कराया गया है। यह शान कठिनतासे होता है । जहाँ संसारकी सुख इसके अतिरिक्त अध्यात्मशास्त्रमें संसारकी