SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ले०-५० सूरजचंरजी डाँगी 'सत्यप्रेमी'] हमारा चैन-धर्म गुणसान। परम भहिसाका प्रतिपादक सुखका सत्य विधान । हमारा चैन-धर्म गुणखान ।। हटाये सब प्रमाद-व्यवहार, 'सम्यग्दर्शन-शान नाचरण, कहा मुक्तिका द्वार। पूर्व संयमका पाया सार । संयम-तप-सेवा बतलाया, विश्व-शांतिका सार | निर्विकार बन मार भगाया क्रोध-लोभ-उल-मान अमरा-संस्कृतिका ले प्राधार, हमारा जैन-धर्म गुणखान ॥ कर्म-काण्डोंमें किया सुधार । करताका करके संहार, विविध नयों का द्वन्द देखकर बना मनुज दिग्ग्रान्त । "सिखाया सब जीवों पर प्यार। अनिरपेक्ष स्याद्वाद सिखाकर नष्ट किया एकान्त ॥ कर्मचेतनामें समझाया, सरल भद-विज्ञान । द्रव्य तो पृथक पृथक् स्यादेक, हमारा जैन-धर्म गुणखान ॥ किन्तु पर्याय अनेकानेक । (२) __ मिटाई ध्रुव-अध्रुवकी टेक, त्याग और वैराग्य-भावमें समझ जगतका प्राण। कहा पाखण्ड सदा अतिरेक । वीतरागता ध्येय बनाया जीवनका कल्याण ॥ शुद्ध समन्वय-शक्ति बताई सद्विवेक पहिचान । शरण उत्कृष्ट सिद्धभगवन्त, - हमारा जैन-धर्म गुलखान ॥ हमारे व्यक्ति-देव महन्त । सगुरु निर्मन्य उच्चतम सन्त, वर्णाश्रम या यज्ञ-नाम पर फैले अत्याचार । दयामय प्रेमपंथ सुखवन्त । परमाधार चतुर्मगल हैं, शिवमय मोद-निधान ॥ प्रात्मशुद्धिके निर्मल बलसे उनपर किया प्रहार ॥ हमारा जैन-धर्म गुणखान ॥ युद्ध भी रहा दया का अंग, कभी हो सका न संयम भंग । पड़े आकर जब कठिन प्रसंग निर्गुण-सगुण-जिनेश्वर पाठक और संघ-सरदार, बनाया उचित धर्मका ढंग। . जगमें व्याप्य समस्त सन्तजन परम इष्ट 'नवकार' सप्तभगियोंका उत्पादन सत्य उदार महान । हमारा महामंत्र सुख-धाम, अनवरत अवलम्बन अभिराम | हमारा जैन-धर्म गुलखान ।। किया करते हम सदा प्रणाम, हृदय पाता विशुद्ध विश्राम । सभी धर्म वे भी महान हैं सत्य जिन्होंका प्राण । विनाशक अष-संहारक पंचशक्तिका ध्यान। जिनने समय समय पर पाकर किया लोककल्याण ॥ हमारा जैन-धर्म गुलखान । किन्तु हम बने रूढ़ि के दास, हृदयमें हुमा दम्भका वास । राग देवकी प्रन्थि भेदकर दूर किया दुःस्वार्थ । द्वेष, अघप्रसर, मोह, उच्छ्वास बोड़ा जब मिभात्त-दुरामह, मिला सत्व परमार्थ ॥ हमारे पास अन्ध-विश्वास । सीखकर प्रथम धर्म सागार, द्रके सत्यप्रेमकी ज्योत्स्ना हो कि विहान । लिये फिर पंच महाबत पार । हमारा जैन-धर्म गुणखान । Recem
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy