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________________ ४३. अनेकान्त [[वैशाख, वीर-निर्वाण सं०२४६५ हम 'वैधानिक गवर्नमेंट' या 'सभ्य' राष्ट्रका जिक डाक्टर टॉम्सन का मत है कि हम उस शानको पर्याप्त करते हैं तो हमें इनका सिर्फ अनिश्चित विचार रहता मान सकते हैं जो कि विश्लेषण को लक्षित उद्देश्यके है। इन शन्दोंके अर्थ न तो साफ है न सुलझे हुए। लिये काफी दूर तक ले जाता है। जैसे कलसाजको यही बात स्पर्शों, स्वादों, सुगन्धियों, रंगों और आवाजों- मशीनका पर्याप्त ज्ञान है यदि वह न सिर्फ़ उसके कुल के विषय में भी है, इनका शान साफ हो सकता है, पर पहियों और हिस्सोंको जानता है बल्कि उन हिस्सोंके उस अर्थ में सुलझा हुआ नहीं जिसमें कि लीबनिज उद्देश्य, द्रव्य, रूप, और कार्य को भी जानता है। इसके इस शब्दका प्रयोग करता है। अलावा बशर्तेकि वह उस द्रव्य की कल-सम्बन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त शब्दोंसे जो अन्तर लीबनिज़ खूबियोंको और शक्लोंकी उन विशेषताओंको भी प्रकटाना चाहता था उसे बताना आसान नहीं । वह जाने जो कि मशीनके काममें प्रभाव डालती हैं। लेकिन कहता है-"जब हर चीज़ जिसका ज्ञान सुलझी कोटिमें उससे यह श्राशा नहीं रखी जा सकती कि वह इससे आता है पूरे तौरसे सुलझे रूपमें जानली जाती है या भी आगे बढ़े और यह समझाये कि 'अमुक प्रकारका जब अन्तिम विश्लेषण पहुँच जाता है तो ज्ञान पर्याप्त लोहा या लकड़ी मज़बत या कमज़ोर क्यों है', 'तेल होता है। कदाचित् मैं नहीं जानता कि इसका कोई क्यों चिकना कर देता है' या यह कि'यान्त्रिक शक्तियोंकामिल उदाहरण दिया जा सकता है--संख्याओंका के सिद्धान्त किन स्वयं सिद्धियों पर आधार रखते हैं।' शान अलबता इसका उदाहरण कहा जा सकता है।" अन्तमें, हमें संकेतात्मक और तात्कालिक ज्ञानके . तब वस्तु के पर्याप्त ज्ञान के लिये हमें न केवल वस्तु- अत्यन्त आवश्यक अन्तरको ध्यानपूर्वक देखना के उन अवयवोंकी ही तमीज़ होनी चाहिये जिनसे कि चाहिये। उस वस्तुका शान हुअा था बल्कि उन अवयवोंके अव- तात्कालिक शान वह है जिसे हम इन्द्रियों द्वारा यवों की भी। उदाहरण रूपसे कहा जासकता है कि हमें सीधा या मनसे तत्क्षण प्राप्त करें। हम तात्कालिक रूपसे शतरंजके तख्तेका पर्याप्त ज्ञान है; क्योंकि हम जानते जान सकते हैं कि वर्ग या षट्कोण क्या है, लेकिन है कि वह ६४ वर्गोसे बना है और उनमेंसे हर वर्गको सहस्रभुजको इस प्रकार जानना मुश्किल है। हम सुलझे हुए रूपसे जानते हैं हरएक वर्ग चार हम १००० भुजाओंकी और १००१ भुजाओंकी बराबरकी सरल रेखाओं से बना है, जो कि समकोण शक्लों के फ़र्कको देखते ही नहीं बता सकते और बनाती हुई मिलती हैं। फिर भी यह नहीं कहा जा- न हम ऐसी किसी शक्लकी पर्णतया अपने मनमें सकता कि हमें सरल रेखाका सुलझा हुश्रा शान है। कल्पना ही कर सकते हैं। इसे हमने सिर्फ नामसे या क्योंकि उसकी हम भली भाँति परिभाषा नहीं दे सकते संकेतात्मक रूपसे जाना है। तमाम बड़ी संख्याएँ जैसे या उसका सरलतर रूपमें विश्लेषण नहीं कर सकते। प्रकाशकी रफ्तार (१८६००० मील प्रति सैंकिंड), पूर्णरूपसे पर्याप्त होनेके लिये हमारे शानको विश्ले- सूर्यकी दूरी (६३०००००० मील) बतानेवाली या पणके बाद विश्लेषणको अनन्तवार तस्लीम करना ऐसी ही और, हमें सिर्फ संकेतोंसे शात है, और हमारी चाहिये, गोया पर्याप्त ज्ञान असम्भव होगया। लेकिन कल्पनाशक्ति के बाहर हैं।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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