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________________ वर्ष २, किरण ब्रह्मचर्य ५०३ समाधान-संसारी आत्मा कर्मसे श्रावृत रहता है, शममें जिन पदार्थोंका शान रहता है, वह ज्ञान क्षामिक इसलिये उसे मूर्तिक स्वीकार किया गया है। जब आत्मा अवस्थामें भी रहताहै । सानका प्रभाव नहीं होता, यह कर्मसे श्रावृत नहीं रहता, उस समय उसे अमूर्तिक ही क्षायिक रूपमें बदल जाता है, उसी प्रकार शुख अवस्थाकहा जाता है । भावमन (ज्ञानविशेष) पर उसके प्रति- में यद्यपि भावमन संज्ञा नहीं रहती फिर भी उस शानका पक्षी कर्मका आवरण नहीं है, किन्तु अपने प्रतिपक्षी अभाव नहीं होता इसलिये शुद्ध अवस्थामें भी भावमन कर्मका अनुदय ही है । अतः भावमनको पौद्गलिक नहीं उपलब्ध होना चाहिये यह प्रश्न ही नहीं उठता । अतः माना जासकता। . भावमनको पौद्गलिक मानना ठीक नहीं है । इस विषयप्राक्षेप ३-यदि भावमन सर्वथा जीवको मान को यहाँ अधिक विवादमें न डालते हुए इतना कहना लिया जावे तो श्रात्माकी शुद्ध अवस्थामें भी वह उप- ही पर्याप्त होगा कि भावमनको सभी विद्वान् ज्ञानात्मक लब्ध होना चाहिये। स्वीकार करते हैं । तथा संसारमें ऐसा कोई भी प्राणी समाधान-भावमन ज्ञानस्वरूप है । यह नोइन्द्रिया- नहीं जो कभी भी शानशून्य अवस्थामें रहता हो । सूक्ष्म वरण कर्मके क्षयोपशमसे होता है, इसलिये इसकी भाव- निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके भी उत्पन्न होने के प्रथम मन संज्ञा है । शुद्ध अवस्थामें ज्ञान क्षायिक होता है, समयमें स्पर्शन-इन्द्रिय जन्य मतिशानपूर्वक लब्ध्यक्षरइसलिये भावमन संज्ञा नहीं होती । ज्ञानसामान्यकी रूप श्रुतज्ञान होता है । अर्थात् इतना क्षयोपशम सभी दृष्टिसे दोनों समान हैं। क्षायोपशमिक अवस्था में जो संसारी प्राणियोंके होता है, इस क्षयोपशमका कभी ज्ञान होता है,वही ज्ञान क्षायिक अवस्थामें भी होता है। विनाश नहीं होता। इस प्रकार इन प्रमाणोंके द्वारा अन्तर केवल पूर्णता और अपूर्णताका होता है। जिन यह सिद्ध होजाता है कि भावमन सभी संसारी प्राणियोंपदार्थोको हम मति-श्रुतशान के द्वारा अांशिक जानते हैं, के होता है। तथा भावमन भी श्रुतज्ञानका आधार केवली उन पदार्थों को सिर्फ श्रात्माके द्वारा पूर्ण रूपसे माना जाता है। जानते हैं। वह अांशिकशान भी उसी पूर्णशानमें अतः जैनाचार्योंने सभी संसारी प्राणियोंके मति सम्मिलित ही है उसकी सत्ता नष्ट नहीं होती । क्षयोप- और श्रुतज्ञान माने हैं, इसमें विरोध नहीं पाता । ब्रह्मचर्य "संयमी और स्वच्छन्दके तथा भोगी और त्यागीके जीवन में भेद अवश्य होना चाहिये । साम्य तो सिर्फ उ.पर ही ऊपर रहता है। भेद स्पष्ट रूपसे दिखाई देना चाहिये। आँखसे दोनों काम लेते हैं। परन्तु ब्रह्मचारी देव-दर्शन करता हैं, भोगी नाटक सिनेमामें लीन रहता है । कानका उपयोग दोनों करते हैं, परन्तु एक ईश्वर-भजन सुनता है और दूसरा विलासमय गीतोंको सुनने में आनन्द मनाता है । जागरण दोनों करते हैं, परन्तु एक तो जागत अवस्थामें अपने हृदय-मन्दिरमें विराजित रामकी आराधना करता है, दूसरा नाच रंगकी धुनमें सोनेकी याद भल जाता है । भोजन दोनों करते हैं, परन्तु एक शरीर को तीर्थ-क्षेत्रकी रक्षा-मात्रके लिये कोठे में अन्न डाल लेता है और दूसरा स्वादके लिये देह में अनेक चोजोंको भर कर उसे दुर्गन्धित बनाता है।" -महात्मा गांधी
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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