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________________ ५०२ अनेकान्त [असाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६ ॥ कारण ही वैभाविक कहा है। यह कहीं भी नहीं कहा भयमोंभावमनोशाक विशिष्ट स्वयं हि सवमूर्तम् । कि शानावरण कर्मके उदयसे इनमें विकार पाया है। तेवात्मदर्शनमिह प्रत्यामतीन्द्रिक न स्यात् ॥ - भावमनको सभी प्राचार्योंने ज्ञान विशेष स्वीकार -पंचाध्यायी, ७१८ किया है। यथा-- अर्थात्-भावमन ज्ञान विशिष्ट जब होता है, तब __ "वीर्वान्तरायनोइग्निपावरबायोपशमापेच्या भा- वह स्वयं अमूर्त स्वरूप हो जाता है। उस अमूर्त मन स्मनो विशुदि वमनः॥" -सर्वार्थसिद्धि । रूपशान द्वारा प्रात्माका प्रत्यक्ष होता है। इसलिये वह अर्थात्-वीर्यान्तराय और जो इन्द्रियावरण कर्मके प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय क्यों न हो ? अर्थात् केवल स्वात्माको क्षयोपशमसे अात्मामें जो विशुद्धि होती है, उसे भावमन जाननेवाला मानसिकज्ञान है, वह अवश्य अतीन्द्रिय कहते हैं। प्रत्यक्ष है। भावमनः परिणामो भवति तदात्मोपयोगमात्रं वा। इन प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध हो जाता है कि भावलाभ्युपयोगविशिष्टं स्वावरणस्य चयाकमाव स्यात् ॥ मन ज्ञानस्वरूप प्रात्मपरिणति है । इसमें ज्ञानावरण -पंचाध्यायी, ७१४ कर्मकृत विभावता नहीं आसकती, इसलिये इसे किसी अर्थात्--भावमन श्रात्माका ज्ञानात्मक परिणाम भी तरह पौद्गलिक नहीं कहा जा सकता । विशेष है। वह अपने प्रतिपक्षी आवरण कर्मके क्षय होने- आक्षेप १-भावमन जीवकी अशुद्ध अवस्थामें से लब्धि और उपयोग सहित क्रमसे होता है। उत्पन्न हुई कर्म-निमित्तक परिणति है । अतएव यह कोंके क्षयोपशमसे आत्माकी विशद्धिको लन्धि जीवकी नहीं कही जासकती। यदि जीवकी कहना भी कहते हैं । तथा पदार्थोकी ओर उन्मुख होने को उपयोग हो तो विभावरूपसे ही उसे जीवकी कह सकते हैं, कहते हैं। बिना लब्धिरूपज्ञानके उपयोगरूप ज्ञान नहीं स्वभावरूपसे नहीं । वह तो परके निमित्त उत्पन्न हुआ हो सकता; परन्तु लब्धिके होने पर उपयोगात्मक ज्ञान हो विकारीभाव है। या न हो, कोई नियम नहीं है । मनसे जो बोध होता है, समाधान-यह बताया जा चुका है कि ज्ञान, वह युगपत् नहीं किन्तु क्रमसे होता है मन मूर्त और ज्ञानावरणीय कर्मके उदयसे नहीं होता, किन्तु क्षयोपशमअमूर्त दोनों पदार्थोंको जानता हैजानता है से होता है। इसमें ज्ञानावरणीय कर्मका उदय कारण तस्माविमनवचं स्वात्मग्रहणे किलोपयोगि मनः। नहीं, किन्तु अनुदय ही कारण है। उसी प्रकार भावमन कि विशिवशायां भवतीह मनः स्वयं ज्ञानम् ॥ भी ज्ञान विशेष है जो अपने प्रतिपक्षी कर्मके अनुदयसे -पंचाध्यायी, ७१६ होताहै । इसलिये इसे परके निमित्तसे उत्पन्न हुआ अर्थात्-इसलिये यह बात निर्दोष रीतिसे सिद्ध विकारी भाव कहना योग्य नहीं है। हो चुकी कि स्वात्माके ग्रहणमें नियमसे मन उपयोगी आक्षेप २-संसारी आत्माको जब कथंचित् मूर्तिक है। किन्तु यह मन विशेष अवस्थामें (अमूर्त पदार्थ स्वीकार किया गया है तो भावमनको ज्ञानस्वरूप मानते ग्रहण करते समय ) स्वयं भी अमूर्तज्ञान रूप हो जाता हुए भी कथंचित् पौद्गलिक मान लेनेमें कोई आपत्ति है इसी विषयको फिर और भी स्पष्ट किया है-- नहीं होना चाहिये।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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