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________________ ४५२ अनेकान्त [ज्येष्ठ वीर निर्वाण सं०२४६५ । सुभाषित साहबको ग्रंथम १०० पद्यांके होनेकी कल्पना उत्पन्न हुई है और उसीपरसे उन्होंने उक्त पाँच पद्योंको प्रक्षिप्त करार . [गद्य-गीत ] देनेके लिये अपनी बुद्धिका व्यापार किया है, जो ठीक [भी• भगवत्स्व रूप जैन 'भगवत्'] नहीं जान पड़ता; क्योंकि 'शतक' ग्रन्थके लिये ऐसा पंछी ! तुम कितने सुन्दर हो ? नियम नहीं है कि उसमें पूरे १०० ही पद्य हो, प्रायः न जाने कितने मंगल-प्रभातोंका तुमने संसारको १०० पद्य होने चाहिये-दो, चार, दश पद्य ऊपर भी सन्देश दिया ? हो सकते हैं। उदाहरणके लिये भर्तृहरि-नीतिशतकमें कितनी बार उषा तुम्हारी चुहल श्रवण कर तारुण्य ११०, वैराग्यशतकमें ११३, भूधर-जैनशतकमें १०७ की ओर बढ़ी ? और श्री समन्तभद्रके जिनशतकमें ११६ पद्य पाये जाते कितनी वार सोया हुआ प्रभाकर तुम्हारी मनोहरहैं । अतः ग्रन्थका उत्तरनाम या उपनाम 'समाधिशतक' ध्वनि सुनने के लिए जागा ? होते हुए भी उसमें १०५ पद्योंका होना कोई आपत्तिकी कितना उपादेय है तुम्हारा-स्वर ! कुछ ठीक है इस सबका? बात नहीं है । बिहग ! तुम मुक्त-आकाशमें सहज-साध्य बिहार वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा, ता. ५-५-१६३६ करते हो, जहाँ मानवीय समृद्धि-शालिनी चेष्टाएँ ही पहुँच पाती हैं ! फल भारत नमि बिटप सब रहे भूमि निराइ। वायु तुम्हारी सहचरी और श्राकाश तुम्हाग पथ ! पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ ॥ जैसे छलमय-विश्वसे दूर-सुदूर-रहना ही तुम्हारा सुखी मीन सब एक रस अति अगाध जल माहि। लक्ष्य हो ! जथा धर्मसीलहि के दिन सुख संजुत जाहि ॥ तुम्हारे छोटे-से जीवन में कितनी मधुरिमा छिपी बैठी -तुलसी है.कि देखते ही रसिक-आँखें तुमसे स्नेह करने लगती माला मनसे लड़ पड़ी, क्या फेरे तू मोय। हैं ! सुकमारियाँ तुम्हें अपनी उँगलियों पर विठला कर तुझ में है यदि साँच तो, राममिला, तोय ॥ प्रमोद प्राप्त करती हैं। मन दिया कहुँ और ही, तन मालाके संग। तुम्हारी चहक उनके हृदय-प्याले में श्रासनकी तरह कहे कबीर कोरी गजी कैसे लागे रंग ॥ उन्माद पैदा करती है ! -कबीर क्या तुम भी प्रेम-योगमें विश्वास रखते हो? अवश्य रखते हो! • यह लेख वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमालामें संस्कृत भले ही तुम ऊँचे उड़े ! किन्तु प्रेमकी डोर-ममता हिन्दी-टीकानोंके साथ मुद्रित और शीघ्र प्रकाशित । की डोर-तो न काट सके ? होने वाले 'समाधितंत्र' ग्रन्थकी प्रस्तावनाका द्वितीय । अब तुम्हीं सोचो-महत्ता किस ओर है, ऊँचे -सम्पादक पहुँचनेमें, या प्रेम-बन्धनसे मुक्त होने में...!
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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