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________________ वर्ष २, किरण ३ ] क्या सिद्धान्त-प्रन्थोंके अनुसार सबही मनुष्य उचगोत्री हैं ? २०१ या दृष्टान्त का निर्देश करनेके लिये 'यथा' 'इव' का जो उत्तर दिया जायगा वह आशंका न करने आदि शब्द तथा 'वत्' प्रत्ययका निर्देश किया में हेतु बतलाएगा। इसीसे लेखकमहोदयने अपने जाता है, तथा हिन्दी में 'यथा' 'जैमा' 'तरह' आदि प्रमाणोंका जो भावार्थ दिया है, उसमें लिया हैशब्दों का निर्देश किया जाता है। किन्तु लेखक- 'म्लेन्छभूमिमें उत्पन्न हुए मनुष्योंके सकल-संयम गहादयके द्वारा दिये गये भावार्थमें और उसके कैसे हो सकता है, ऐमी शंका नहीं करनी चाहिये मुलभूत जयधवला और लब्धिमारकी टीकाके क्योंकि .. ।' न्यायशास्त्र के सम्पर्क में आने वाले प्रमाणों इम तरह का कोई शब्द नहीं है। दोनों पाठक जानते ही हैं कि अनुमानमें प्रतिज्ञाक बाद प्रमाणों में विगहाभावादो', 'संयमप्रतिपत्तेर विरा- हेतु और हेतुके बाद उदाहरणका प्रयोग किया धन' और 'संयमसंभवात्' शब्दों की पञ्चमी जाता है । प्रतिज्ञाके बाद-विना हेतुप्रयोगकविभक्तिसे स्पष्ट है कि जिन दो वाक्यों की लेखक- उदाहरण कोई विज्ञ पुरुष नहीं देता । जयधवला महादय दृष्टान्तपरक बतलाते हैं, वे दोनों हतुपरक और लब्धिसार-टीकाकं प्रमाण और उनके भावार्थ है; क्योंकि हेतुगं पञ्चमी विभक्ति हाती है । लेखक- में 'नाशंकितव्यम्' और 'ऐमी शक्का नहीं करनी महादयके द्वारा निकाले गये फलितार्थको दृषित चाहिये' तक ती प्रतिज्ञा-वाक्य है और उसके बाद करने के लिये ऊपर श्री धवलजी और तत्त्वार्थश्लाक- जो दो वाक्य हैं वे दोनों हेतुपरक हैं, वहां दृष्टान्त वार्तिकसं जो दो वाक्य दिये गये हैं, पाठक देखेंगे की तो गन्ध तक भी नहीं है। यदि उन वाक्यों में कि उनमें भी 'आशङ्कनीयम् और नशंकनीयम्' दृष्टान्त भी दिया होता तो उनकी रचना इस के बाद जो वाक्य हैं वे भी पञ्चम्यन्त, अतएव प्रकारमं होनी चाहिये थी - 'ऐसी शङ्का नहीं हेतुपरक हैं। यदि उन वाक्यों को भी दृष्टान्तपरक करनी चाहिये, क्योंकि म्लेच्छभूमिमें उत्पन्न हुए मान लिया जाय तो उनके पूर्ववर्ती वाक्योंका जीवोंके सकलसंयमका विरोध नहीं हैं। जैसे, अर्थ लेखकमहोदयके मतानुमार करनेसे होनेवाली दिग्विजयकं ममय चक्रवर्ती आदिके साथ आये गड़बड़ीमें जो थोड़ी बहुत कमी रह गई थी, हुए उन म्लेच्छ राजाओं के, जिनके चक्रवर्ती उसकी पूर्ति होजायगी। असल में यदि किमीस आदिके साथ वैवाहिक सम्बन्ध उत्पन्न होगया है, कहा जाय कि 'ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये', संयमका विरोध नहीं है । अथवा, जैम, चक्रतो वह तुरन्त प्रश्न करेगा-क्यों ? और इम क्यों वादिकं साथ विवाही हुई उनकी कन्याश्रांक __ * "म्लेच्छभूमि जमनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथं भवतीति नाश कितव्यम् , दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागतानां संयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा, तत्कन्यकानां चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्मे पूरपन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेक्ट्रव्यपदेशमाज: संयमसम्भवात् । तथाजातीयकानां दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावात्।" लब्धिसार टीका, गाथा १९५ । ( लेखमें १९३ अशुद्ध छपा है) जयधवलाके प्रमाण में थोड़ा सा अन्तर है। उसमें लिखा है-'मिलेछण्याणं तत्थ चकवट्टि भादीसिह जादवेवाहियसंबंधाणं संजमपरिवत्तीए विरोहामावादो ( जयधवलामें इस पंक्तिके पूर्व ये शब्द भी दिये हुए हैं, जिनका यहाँ छोड़ा जाना तथा जयधवलाके प्रमाणको पहले न देकर बाद को खण्डित रूप में देना कुछ अर्थ रखता है-“जह एवं कुदो तत्थ संजमगाणसंभवो त्ति णासकपिज्ज। दिग्विजयट्टि चक्रवट्टिरवधावारेण सह मज्जिमखंडमागया।" -सम्पादक )।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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