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________________ २०२ अनेकान्त [पौष, वीर नि० सं० २४६५ गर्भमें उत्पन्न हुए पुरुषों के सकलसंयमका विरोध संयम धारण कर सकती है। इस शंका-समाधाननहीं है'। टीकाकारने चक्रवर्तीके साथ आये हुए से यही ध्वनित होता है कि म्लेच्छभूमिमें उत्पन्न म्लेच्छ राजाओंके तथा चक्रवर्ती श्रादिका विवाही हुए पुरुषों के आमतौर पर संयमका विधान नहीं गई म्लेच्छकन्याओंके गर्भसं उत्पन्न हुए पुरुषोंके था, अत: टीकाकारको उक्त शङ्कासमाधानके द्वारा सकलसंयम धारण कर सकनेको उदाहरणरूपमें यह बतलाना आवश्यक प्रतीत हुआ कि किन-किन उपस्थित नहीं किया है, किन्तु हेतुरूपमें उपस्थित म्लेच्छपुरुषोंक सकलसंयभ होसकता है। भावार्थकिया है। इसके स्पष्टीकरणके लिये, हमें एकबार की अन्तिम पंक्ति-इम प्रकारकी जातिवालोंके अपना ध्यान लब्धिसारकं उस प्रकरण की ओर लिये दीक्षाकी योग्यताका निषेध नहीं है ( तथालेजाना होगा, जिसमें उक्त वाक्य पाया जाता है। जातीयकानां दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावात्)-से यह ___ लब्धिसारके जिस प्रकरणमें गाथा नं० १९५ बात बिल्कुल स्पष्ट होजाती है। क्योंकि इसमें स्पष्ट वर्तमान है, जिसकी टीकाके एक अंशको प्रमागा- रूपसे बतलाया है कि इस प्रकारकी जातिवालोंक, रूपमें उद्धृत किया गया है, उस प्रकरणमें म्लेच्छ अर्थात जिन म्लेच्छराजाओंका चक्रवर्ती आदिक पुरुषोंक भी संयम-स्थान बतलाये हैं। उसी परसे साथ वैवाहिक आदि सम्बन्ध होगया है, तथा टीकाकाग्ने यह प्रश्न उठाया है कि म्लेच्छभूमिमें चक्रवती आदिक साथ विवाही हुई म्लेच्छउत्पन्न हुए जीवोंके सकलसंयम कैसे हो सकता कन्याओंसे जो सन्तान उत्पन्न होती है, उनके है ? और उसका समाधान दो प्रकार किया है। दीक्षाका निषेध नहीं है । इस वाक्यसे यह निष्कर्ष एक तो यह कि जो म्लेच्छराजा चक्रवर्ती के साथ निकलता है कि अन्य म्लेच्छोंके दीक्षाका निषेध आर्यग्वण्डमें आजाते हैं और जिनका चक्रवर्ती है। यदि टीकाकारको लेखक महोदयका सिद्धान्त मादिके साथ वैवाहिक श्रादि सम्बन्ध होजाता है, अभीष्ट होता तो उन्हें दो प्रकारकं म्लेच्छोंके संयमवे सकलसंयम धारण कर सकते है, और इस का विधान बतलाकर उसकी पुष्टि के लिये उक्त प्रकार म्लेच्छ पुरुषों में भी संयमके स्थान होसकते अन्तिम पंक्ति लिखनेकी कोई आवश्यकता हो हैं। दूसरा यह कि चक्रवर्ती जिन म्लेच्छ कन्याओं नहीं थी। क्योंकि वह पंक्ति उक्त सिद्धान्त-सभी सं विवाह करता है, उनकी सन्तान मातृपक्षकी म्लेच्छ सकलसंयम धारण कर सकते हैं-के अपेक्षासं म्लेच्छ कहलाती है, और वह सन्तान विरुद्ध जाती है। • यदि तथा जातीयकानां' पदसे लेखक महाशयको म्लेच्छोंको दो जातियों का ग्रहण अभीष्ट है-एक तो म्लेक्ष कन्याओंसे भार्य पुरुषों के संयोगदाग उत्पन्न हुए उन मनु योका जाति जिन्हें भाप लेग्वमें हो भागे ‘परम्परया मलेच्छ' लिखते हैं और दूसरी म्लेच्छ वण्डोंसे भार्यविण्डको भाए हुए साक्षात् म्लेच्छों की जाति, तब चूंकि मार्य खण्डको भाए हुए साक्षात् म्लेच्छोंकी जो जाति होती है वही जाति म्लेच्छ खण्टी उन दूसरे म्लेच्छों की भी होती ओ आर्य खण्डको नहीं पाते हैं, इसलिये साक्षात म्लेच्छ जाति के मनुष्यों के सकल-संयमके ग्रहण की पात्रता होनेसे म्लेच्छ खण्डोंमें भवशिष्ट रहे दूसरे म्लेच्छ भी सकलसंयमके पात्र ठहरते हैकालान्तरमें वे भी अपने भाई-बन्दों के साथ भार्य खण्डको भाकर दीक्षा ग्रहण कर सकते है। दिग्विजयके बाद भार्य-म्लेच्छखण्डों में परम्पर भावागमनका मार्ग खुल ही जाता है। और इस तरह सकलसंयम-गृहखकी पात्रता एवं संभावनाके कारण म्लेच्छ खण्डोंके सभी मलेच्छों के उन गोत्री होनेसे बाबू सूरजभानजीका वह फलितार्थ अनायास ही सिद्ध होजाता है, जिसके विरोधमैं इतना अधिक द्राविडी प्राणायाम किया गया है !! -सम्पादक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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