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________________ अप: किरण ३] क्या सिद्धान्तग्रन्थों के अनुमार सब ही मनुष्य उचगोत्री हैं ? २०३ म्लेच्छ पुरुपोंके संयमके स्थान बतलानेके ने जो आशय निकाला है वह सर्वथा भ्रान्त है। लिए जो दो प्रकार बतलाये गए हैं, उनके मध्यमें अत: उनके आधार पर सभी मनुष्योंको उच्चगोत्री पड़ा हुआ अथवा' शब्द भी ध्यान देने योग्य है। नहीं माना जा मकता। नीचे इसीके सम्बन्धमें गथवा'* शब्द एक वियोजक अव्यय है, जिसका एक और भी उदाहरण देकर इम चर्चाको समान प्रयोग वहाँ होता है जहाँ कई शब्दों या पदों से किया जायगा। कि.मी एकका ग्रहण अभीष्ट हो। ममुशयकारक सर्वार्थसिद्धि श्र० १. सू० ७ की व्याख्यामें नया' आदि शब्दोंका प्रयोग न करके 'अथवा' एक वाक्य निम्न प्रकार है-"श्रीपमिकमपर्यामसन्द का प्रयोग करने में कोई विशेष हेतु कानां कथम, इतिचेन , चारित्रमोहोपशमन सह अवश्य होना चाहिये। मैं ऊपर लिख आया हूँ मृतान्प्रति ।" इसमें शङ्का की गई है कि अपर्याप्तकों चि, म्लेच्छ पुरुपोंके मकलसंयमके स्थान किम के श्रीपशमिक सम्यक्त्व किस प्रकार हो सकता प्रकार हो सकते हैं, यह टीकाकारने बतलाया है और उसका समाधान किया गया है कि चारित्रऔर उसके दो प्रकार बतलाये हैं। मरी दृष्टिम मोहनीयका उपशम करके जो जीव मरगको प्राप्त जिन लोगोंके जहन में यह बात समाना कठिन होते हैं, उनके अपर्यातक दशामें श्रीपशमिक जनीन हुई कि चक्रवर्ती आदिके साथ श्राये हुए सम्यक्त्व हो सकता है। इस वाक्यकी रचना म्नेच्छगज मकलमंयम धाग्गा कर सकते हैं. उन लब्धिसार-टीकाके उक्त प्रमाणकी तरह भी की लोगोंको दृष्टिमें रग्बकर प्राचार्य महागजने जा सकती है, जो इस प्रकार होगी-"औपशभिकम्लेच्छों में संयमके स्थान हा मकनेका दृमग प्रकार मपर्याप्त कानां कथं भवतीति नाशंकितव्यम, चारित्रबतलाया है। पहले प्रकार में ना विशिष्ट दशामें माहोपशमन मह मृतानां तत्मत्वाविगंधान ।" मानात म्लेच्छोंक मकलमंयम हा मकनकी बात इसकी रूपरंग्वाम थोड़ासा श्रन्तर हो जाने पर भी कही है. किन्तु इमर में परम्परया म्लेच्छोंक, सर्वार्थसिद्धिकी मूल पंक्ति और उसके इस परिअर्थात प्रार्य सुरुप और म्लेच्छ कन्यास उत्पन्न हुए वनित म्पके अर्थमें कोई नर नहीं पड़ता। पुरुषांक, जा यदापि पितृवंशकी अपेक्षा आर्य ही इसका भावार्थ इम प्रकार है.--'अपर्यात कोंके है. किन्तु मातृवंशकी अपेक्षा म्लेच्छ है, मकल औषमिक सम्यक्त्व कैसे हो सकता है, ऐसी संयमका विधान किया है। यदि मंरा दृष्टिकोण शङ्का नहीं करनी चाहिए क्योंकि चरित्रमोहनीयका ठीक है तो 'अथवा' शब्दस भी उक्त सिद्धान्त- उपशम करके मरणकोप्राय हा जीवांक ओपमिक सभी भन्छ मकलसंयम धारण कर सकते हैं- मम्यक्त्वक होने में कोई विरोध नहीं है।' इम का बण्डन होता है। भावार्थ का श्राशय यदि लेखक महादयके दृष्टि इस विस्तृत विवेचन यही निष्कर्ष निकलता कोणसे निकाला जाए तो वह इस प्रकार होगाहै कि सिद्धान्त-प्रन्योंकि वाक्यांस लेखकमहादय- 'इम पंक्रिम प्राचार्य महागजने यह बान बनलाई संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर, पृ. ३७ है कि जो भी अपर्याप्तक जीव हैं, या जो भी
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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