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________________ गोत्रलक्षणोंकी सदोषता [ले.-५० ताराचन्द जैन, दर्शनशासी ] neperly Before नैनसिद्धान्तमें अन्य कर्मोकी तरह गोत्र-कर्म पर और गमन करते हुए मनुष्य, घोड़ा, हाथी, बन्दर "भी विचार किया गया है; परन्तु गोत्र-सम्बन्धी आदिको भी उस समय 'गाय' कहना अनुचित न जो कथन सिद्धान्तग्रंथों में पाया जाता है वह इतना समझा जाना चाहिये। परन्तु बात इससे उलटी ही न्यून-थोड़ा है कि उससे गोत्र कर्मकी उलझन सुलझ है अर्थात बैठी, खड़ी वा लेटी किसी भी अवस्थामें नहीं पाती और न गोत्र-कर्मका जिज्ञासु उस परसे विद्यमान गायको हम 'गो' रूढि शब्द द्वारा गलकिसी ठीक नतीजे पर ही पहुँच पाता है । ग्रंथोंमें कंबल-मींग और पूंछ वाले पशुविशेष (गाय ) का गोत्रके जितने लक्षण देखनेमें आते हैं वे या तो ही ग्रहण-बोध करेंगे। और 'गो' शब्दकी व्युत्पत्ति लक्षणात्मक ही नहीं हैं और यदि उनको लक्षणारक से कहे गये अर्थपर ध्यान नहीं देंगे। यदि व्युत्पत्ति मान भी लिया जावे तो वे मदोष, अपूर्ण और से कहे गये अर्थके अनुसार चलेंगे तो प्रायः प्रत्येक असंगत ही ऊंचते हैं। उन लक्षणोंसे 'गोत्र-कर्म शब्दार्थमें दोप पाये जावेंगे और किमी अर्थका क्या है?'इम प्रश्नका उत्तर नहीं के बराबर मिलता शब्दके द्वाग संकेत करना असंभव हो जावेगा । है और गोत्र-विषय जैसाका तैमा ही अम्पष्ट और इसलिये किमी शन्दकी व्यत्पत्तिको उम शब्द द्वारा विवादका विषय बना रहता है। कहे जाने वाले पदार्थका लक्षण नहीं माना जा - आचार्य पूज्यपाद स्वामी गोत्र-विषय पर प्रकाश सकता। डालते हुए लिखते हैं-'उच्चैनींचैश्च गयते शब्धत वास्तव में वस्तुका लक्षण ऐसा होना चाहिये इति वा गोत्रम्' (मर्वार्थः ८-) अर्थान-जिमसे जो उस वस्तुको दृमरे समस्त पदार्थोस भिन्न-जुदा जीव ऊँच-नीच कहा या ममझा जावे उसे गोत्र बतला मके । जिम लक्षणमें उक्त खूबी नहीं पायी कहते हैं। यदि उक्त वाक्य पर गौर किया जाय तो जाती वह लक्षण लक्षणकोटिमे बहिष्कृत ममझा यह वाक्य व्याकरण-शास्त्रानुसार गोत्रशब्दकी जाता है और जो लक्षण लक्ष्य पदार्थ-जिस व्युत्पत्तिमात्र है, गोत्रका लक्षण नहीं । शब्द-व्य. पदार्थका लक्षण किया जाता है में पूरी तरह त्पत्तिसे उस शब्दद्वारा कहा गया अर्थ नियम नहीं पाया जाता, अर्थात् लक्ष्यके एक देशमें रहता वैसा ही हो, ऐसा सिद्धान्त नहीं है। जैसे- 'गच्छ. है वह भी सदोष कहलाता है। ऐसे लक्षणको तीति गौः' अर्थात् जो गमन कर रही हो उसे गौ 'अव्याप्त लक्षण' कहा जाता है। न्यायशास्त्र में या गाय कहते हैं। इस व्युत्पत्तिके अनुसार बैठी, लक्षणके तीन दोष-अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और खड़ी वा लेटी हुई गाय को 'गो' न कहना चाहिये, असंभव बतलाये गये हैं । जिन लक्षणोंमें उक्त
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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