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________________ वर्ष २, किरण १२] दोषत्रयका सर्वथा अभाव पाया जाता है, वे लक्षण ही समीचीन और कार्यसाधक होते हैं । गोत्रके जितने लक्षण उपलब्ध होते हैं वे सभी सदोष हैं। उनमें अव्याप्ति दोष अनिवार्यरूपसे पाया जाता है। आचार्य पूज्यपादने, गोत्रकर्मके उच्च-नीच भेदोंका 'उल्लेख करते हुए, उनका स्वरूप निम्न प्रकार दिया है— गोत्र लक्षणांकी सदोषता यस्योदयाल्लोकपजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम्, यदुदयाद्गहितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचैगोंत्रम् । - सर्वार्थ० अ० ८ से १२ अर्थात्-जिसके उदयसे लोक सन्मान्य कुलमें जन्म हो उसे 'गोत्र' और जिसके उदयमं निन्दित कुल में जन्म होता है उसे 'नीचगोत्र' कहते हैं । श्रीअकलंकदेव उक्त लक्षणोंको अपनाते हुए इन्हें अपनी वृत्तिमें और भी खुलासा तौर पर व्यक्त करते हैं। यथा लोकपतिंषु कुलेषु प्रथितमाहात्म्येषु इक्ष्वाकुयदुरुजातिप्रभृतिषु जन्म यस्योदयाद्भवति तदुच्चैगों त्रमवसंयम् । गर्हितंषु दरिद्राप्रतिज्ञातदुःखाकुलेषु यत्कृतं प्राणिनां जन्म तन्नीचैर्गोत्रमवसेयम् ।' - तत्वा ० राज०, ०८ सू०१२ अर्थात - जिस कर्मके उदयसे जिनका महत्व - बड़प्पन – संसारमं प्रसिद्ध हो चुका है ऐसे लोक पूजित इक्ष्वाकु, यदु, कुरु आदि कुलांमें जन्म हो उसे 'उच्च गोत्र' कहते हैं और जिस कर्मके उदयसे जीव निन्दित, दरिद्र निर्धन, और दुखी कुलोंमें जन्म पावें उसे 'नीचगोत्र' समझना चाहिये । ऊंच-नीच - गोत्रके इन लक्षणोंपर विचार करनेमालूम होता है कि ये लक्षण केवल श्रार्यखंडों ६८१ के मनुष्योंमें ही घटित हो सकते हैं। भार्यखंडके मनुष्योंके भी इन गोत्र-कर्मोंका उदय सार्वकालिक - हमेशा के लिये नहीं माना जा सकता, केवल कर्मभूमिके समय ही यदुवंशादिकी उत्पत्ति-कल्पना मानी गई है। भोगभूमिज मानवोंमें परस्पर उबनीचका भेद बिलकुल नहीं पाया जाता, सभी मनुष्य एक समान व्यवहारवाले होते हैं। इसलिये उन्हें उच्चता नीचताकी खाई नहीं बनाना पड़ती जब भरत - ऐरावत क्षेत्रों में कर्मभूमिका प्रादुर्भाव होता है तभी इन कुरु, सोम, निन्दित आदि कुलों को जन्म दिया जाता है। इस अवसर्पिर्णी कालचक्रमें पहले पहल कुल-जातिकी सृष्टि भगवान ऋषभदेवने ही की थी। उससे पहले कुलादिका सद्भाव नहीं था । लक्षणोंमें बतलाया गया है कि अमुक गोत्र कर्मके उदयमे अमुक कुल में जन्म पाना ही उसका वह लक्षण है अर्थात गोत्र-कर्मका कार्य केवल इतना ही है कि वह जीवको ऊँच नीच माने जाने वाले कुलोंमें जन्म देवें । जन्मग्रहण करनेके बाद जीवके किम गोत्रका उदय माना जाय इसका लक्षणोंमें कोई जिक्र नहीं किया गया । यदि इन लक्षणोंका यह अभिमत है कि जीवका जिम कुल में जन्म होता है जन्म पानेके बाद भी उसका वही गोत्र रहता है जो उम कुलमें जन्म देनेमें हेतु रहा हो तो इसका मतलब यह हुआ कि जीवन भर - जब तक उस शरीर से सम्बन्ध रहेगा जो जीवने उस भवमें प्राप्त किया है तब तक ऊँच या नीच गोत्रका ही उदय रहेगा । जन्म पानेके बाद भले ही जीव उम कुलके अनुकूल आचरणव्यवहार— न करे, उस प्रतिकूल आचरणसे उस गोत्रका कोई बिगाड़ नहीं होता । परन्तु यह बात
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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