SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 677
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जगत्सुंदरी-प्रयोगमाला लेखक-दीपञ्च पांच्या जैन, नदी] मानेकान्त वर्ष २के ६ अंकमें 'योनिप्राभूत और जग- वजहसे प्रतिमें बहुत अशुद्धियाँ होगई है ।। खैर, जैसी - त्सुन्दरी-योगमाला'-शीर्षक एक लेख प्रकाशित कुछ प्रतिलिपि है उसीके आधार पर यह लेख तैयार हुआ है। उसमें, पं० बेचरदासजीके गुजराती नोटोंके किया गया है, और इसीमें सन्तोष है। आधार पर, उक्त दोनों ग्रन्थोंके संबंध, संपादक महो- कर्तृत्व-विषयक उल्लेख दयने परिचयात्मक विचार प्रकट किये हैं । उक्त लेखसे इस ग्रंथके कर्ता जसकित्ति-यशःकीर्ति मुनि है. प्रभावित होकर "जगत्सुन्दरी-प्रयोगमाला" की स्थानीय जिसके स्पष्ट उल्लेख प्रतिमें इस प्रकार है का बहिरंग और अंतरग अध्ययन करनक पश्चात् जस-इत्ति-णाममुणिणा भणियं णाऊण कजिसवंच। मैं इस लेखद्वारा अपने विचार अनेकान्तके पाठकोंके वाहि गहिउ विहु भम्वो जा मिच्छत्ते स मंगिला ॥ मामने रखता हूँ। -प्रारंभिक परिभाषा-प्रकरण, गाथा १३ जगत्सुन्दरी प्रयोगमालाका साधारण परिचय गिरहेम्वा जसहती महि वलए जेण मणुवेण । यह एक वैद्यक ग्रंथ है । इसकी रचना प्रायः -श्रादिभाग, गाथा २७ प्राकृतभाषामें है । कहीं कहीं बीच बीच में संस्कृतगद्यमें इस जगमुंदरी-पभोगमालाए मुणि जमकित्तिविराए...... और मंत्रभागमें कहीं कहीं तत्कालीन हिन्दी कथ्य णाम....."अहियारो समत्तो । भाषा भी है । इसके अधिकारोंकी संख्या ४३ है। -प्रत्येक अधिकारको अन्तिम मंधि जस-इलि -सरिस धवलोस उ भमय-धारा-अवेशपरिसंत स्थानयप्रतिमें ५७ पृष्ठ हैं और हर एक पृष्ठमें २७ चितिय-मिना भइ पासणं भव मिरच-स्व ॥ गाथा, इस तरह इस प्रतिमें करीब १५०० गाथाएँ हैं । -शाकिन्यधिकार, गाथा ३६ स्थानीय प्रति अधरी है-कौत हलाधिकार तक ही है। ग्रंथकारका समय यह अधिकार भी अपूर्ण है । शाकिनी विद्याधिकारका यशःकानि मुनि कब और कहाँ हए, इन्होंने किन भी १पृष्ठ उडा हुअा-गायब है । इस ग्रन्थकी एक शुद्ध किन ग्रन्थोंकी रचना की और इनके मम-ममायिक प्रति जौहरी अमरसिंह जी नसीराबाद वालोंके पास है । प्रो. ए.एन. उपाध्यायकी प्रतिमें इस गाथाका आजसे ७-८ वर्ष पूर्व उस प्रतिको पं० मिलापचन्द जी दूसरा चरण "शुभमयधरो जवेगवरिमंति" ऐसा दिया म कटारथा केकड़ी लाये और प्रतिलिपि कराई । प्रतिलिपि- है। और उत्तरार्ध ''की जगह 'दु' तथा 'मिछुम्बकी कारके हस्तलिखित ग्रन्थोंके पढ़नेमें अनभ्यस्त होनेकी जगह 'मिन्चव' पाठ पाया जाता है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy