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________________ वर्ष २, किरण ३ ] क्या सिद्धान्त-प्रन्थोंके अनुसार सबही मनुष्य उच्चगोत्री हैं ? १९५ - - भावार्थ-लेखकमहोदयके हो शब्दोंमें - दिये रोजानोंको जीतकर अपने साथ भार्यखण्डमें देते हैं, जो इस प्रकार है-"म्लेच्छ भूमिमें लाया गया था और उनकी कन्याभोंका विवाह भी उत्पन्न हुए मनुष्योंके सकलसंयम कैसे हो सकता चक्रवर्ती तथा अन्य अनेक पुरुषों के साथ हो गया है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि दिग्वि. था, उन म्लेच्छ राजाओंके संयम प्रहण करने में जयके समय चक्रवर्ती के साथ आये हुए उन कोई ऐतराज नहीं किया जाता-मर्थात जिस म्लेच्छ राजाओंके जिनके चक्रवर्ती आदिके साथ प्रकार यह बात मानी जाती है कि उनको सकलवैवाहिक सम्बन्ध उत्पन्न हो गया है, संयमप्राप्ति- संयम हो सकता है उसी प्रकार म्लेच्छ खण्डोंमें का विरोध नहीं है; अथवा चक्रवादिके साथ रहने वाले अन्य सभी म्लेच्छ भार्यखण्डादव विवाही हुई उनकी कन्याओंके गर्भसे उत्पन्न पुरुषों- प्रार्योंकी तरह सकल-संयमके पात्र हैं। दूसग के, जो मातृपक्षकी अपेक्षा म्लेच्छ ही कहलाते हैं, दृष्टान्त यह दिया है कि जोम्लेच्छकन्याएँ चक्रवर्ती संयमोपलब्धिकी संभावना होने के कारण, क्यों- तथा अन्य पुरुषोंसे व्याही गई थीं उनके गर्भसे कि इस प्रकार की जातिवालों के लिये दीक्षा की उत्पन्न हुए पुरुष यद्यपि मातृपक्षकी अपेक्षा म्लेच्छ योग्यताका निषेध नहीं है।" ही थे-माताकी जाति ही सन्तानकी जाति होती है, इस नियमके अनुसार जाति उनकी म्लेच्छ ही श्री जयधवला और लब्धिसारके प्रमाणों का थी-तो भी मुनिदीक्षा ग्रहण करनेका उनके वास्ते उक्त भावार्थ बिल्कुल अँचा तुला है। अत: उसके निषेध नहीं है-वे सकल संयम ग्रहण कर सकते सम्बन्धमं कुछ कहनेकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु हैं। इसीप्रकार म्लेच्छग्वण्डक रहने वाले दूसरे उसके आधार पर लेखकमहोदयने जो फलिनार्थ . म्लेच्छ भी मकल-संयम प्रहगा कर मकते हैं। निकाला है, वह अवश्य ही नुक्ताचीनीकं योग्य है। परन्तु मफल-संयम उच्चगांत्र ही ग्रहण कर मकते आप लिखते हैं "इन लेग्बों में श्री प्राचार्य हैं, इस कारण इन महान पूज्य ग्रन्थोंक उपयुक महाराजने यह बात उठाई है कि म्लेच्छ भूमिमें कथनम कोई भी मन्दह इस विषय। बाकी नहीं पैदा हुए जो भी म्लेच्छ हैं उनके मकल-संयम होने रहना कि म्लेच्छम्वगडाके रहनेवाले ममी म्लेच्छ में कोई शङ्का न होनी चाहिये-सभी म्लेच्छ उच्चगात्री हैं । जब कर्मभूगन म्लेच्छ भी सभी सकल-संयम धारण कर सकते हैं, मुनि हो सकते उच्चगोत्रा हैं और अर्य तो वगात्री हैं हो, तब हैं और यथेष्ट धर्माचरण का पालन कर सकते हैं। सार यही निकला कि कर्मभृमिक सभा मनुष्य उनके वास्ते कोई खास रोक-टोक नहीं है। अपने उच्चगोत्री हैं और मकल-संयम ग्रहण करने की इस सिद्धान्तको पाठकोंके हृदय में बिठानेके वास्ते योग्यता रखते हैं।" उन्होंने दृष्टान्तरूपमें कहा है कि जैसे भरतादिचक्रवर्तियों की दिग्विजयके समय उनके साथ जो लेम्बक महायर अपने प्रमाणोका जो भावार्थ म्लेच्छ राजा पाये थे अर्थात जिन म्लेच्छ म्वयं दिया है. समकं प्रमें उनके इम फलितार्थ
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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