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________________ अनेकान्त [पौष, वीर निर्वाण सं० २४६५ कारण गोम्मटसार-कर्मकाण्ड गाथा २८५में मनुष्य सुनकर हमारे बहुतसे भाई चौंकेंगें।........"इस गति और देवगतिमं उमगोत्र का उदय बताया है।" कारण इसके लिये कुछ और भी प्रबल प्रमाण देनेइन पंक्तियोंके द्वारा लेखकमहोदयन बड़ी बुद्धि- की जरूरत है।" आइये, जरा प्रबल प्रमाणोंका मत्ताके साथ अपने अभिप्रायका ममर्थन किया है; भी सिंहावलोकन करें। किन्तु गोम्मटमार-कर्मकाण्डकी गाथा २८५ के आपने लिखा है-"श्री तत्वार्थसूत्रमें आर्य जिम अंश 'उच्चुदनी गाग्दवे को उन्होंने अपने और म्लेच्छ ये दा भेद मनुष्य जानिक बताये गये मतकं समर्थन में उपस्थिन किया है, मुझे खेद है कि हैं, अगर प्रबल शास्त्रीय प्रमाणोंमें यह बात सिद्ध वह उनके मनका समर्थक नहीं है क्योंकि-उदय- हा जाव कि म्लेच्छखण्डों के म्लेच्छ भी सब उन्नप्रकरणको प्रारम्भ करते हुए प्रन्थकारने कुछ गोत्री हैं तो आशा है कि उनका यह भ्रम दूर हो गाथाओंके द्वारा विशेष स्थानमं या विशेष अवस्था- जायगा । गोम्मटमार कर्मकाण्ड गाथा २६७ और में उदय पाने वाली प्रकृतियोंका निर्देश किया है। ३००के कथनानुसार नीच-गात्रका उदय पाँचवें उसी सिलसिले में उन्होंने बताया है कि उच्चगोत्रका गुणस्थान तक ही रहता है, इसके ऊपर नहीं । उदय मनुष्यगति और देवगतिमें होता है। उनके अर्थात ... ... नीच-गात्री पाँचवें गुणस्थानसे इस लेखका यह प्राशय कदापि नहीं है कि मनुष्य- ऊपर नहीं चढ़ सकता, छठा गुणस्थानी नहीं गति और देवगतिमें उच्चगोत्रका ही उदय होता है। होसकता और न सकलसंयम ही धारण कर यदि ऐसा आशय लिया जायगा तो उससे प्रन्थमें सकता है । .... .....''श्री जयधवल ग्रन्थमें स्पष्ट पूर्वापर विरोध होजायगा; क्योंकि आगे गाथा तौर पर सिद्ध किया है कि म्लेच्छ खण्डों के २६८में मनुष्यगतिमें उदययोग्य जो १०२ प्रकृतियाँ म्लेच्छ भी सकलसंयम धारण कर सकते हैंगिनाई हैं, उनमें नीचगांत्र भी सम्मिलित है । छठे गुणस्थानी मुनि-साधु हो सकते हैं। ....... ... अतः कर्मकाण्ड गा० २८५ से तो यह बात साबित इसके सिवाय, श्री लब्धिसारकी संस्कृतटोकामें नहीं होती कि 'सभी मनुष्य उच्चगोत्री हैं। भी ज्यों का त्यों ऐसा ही कथन मिलता है।" मेरे विचारमें अपने उक्त प्रमाण ( गा० २८५) इसके बाद लेखकमहोदय ने जयधवला तथा श्री की कमजोरीको लेखकमहोदय भी अनुभव करते लब्धिसार की संस्कृतटीकासे प्रमाण उद्धृत किये हैं, तभी तो उन्होंने लिखा है-"सभी मनुष्य उच्च- हैं । व्यर्थमें लेखका कलेवर बढ़ाना अनुचित गोत्री हैं, ऐसा गोम्मटसारमें लिखा है, यह बात समझ कर+ यहाँ हम उन दोनों प्रमाणोंका केवल +यह ठीक है कि उनमें नीच गोत्र भी सम्मिलित है; परन्तु मनुष्य गतिमें भी तो सम्मूछन मनुष्य तथा अन्तरदीपज मनुष्य सम्मिलित हैं, जिन्हें बा. सूरजमानजी ने अपने लेख में उच्च-गोत्री नहीं बतलाया है । उन्हीं में से किसीको लक्ष्य करके यदि यह नीचगोत्रका उदय बतलाया गया हो तो उस पर क्या आपत्ति हो सकती है, उस यहाँ स्पष्ट करके बतला दिया जाता तो अच्छा होता। -सम्पादक +यहाँ प्रमाणों का ज्यों का त्यो उद्धृत कर देना अनुचित समझते हुए भी भागे चलकर (पृ. २०१ पर) उन्हें तोड़-मरोड़ एवं काट-छाँट के साथ उधत करना क्यों उचित समझा गया, इसके ठीक रहस्यको लेखकमहाशय ही समझ सकते हैं। -सम्पादक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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