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क्या सिद्धान्त-ग्रन्थों के अनुसार सब ही मनुष्य उच्चगोत्री हैं ?
(लेखक-श्री०५० कैलाशचन्द्रजी जैन, शात्री)
अनेकान्तके द्वितीयवर्षकी प्रथम किरणमें कि जिन वाक्योंके आधार पर लेखक महोत्यने
"गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता' शीर्षकसं उक्त निष्कर्ष निकाला है, उन वाक्योंसे उक्त वयोवृद्ध समाज-सेवक बाबू सूरजभानुजी वकील- निष्कर्ष निकलता है या नहीं ? अपनी शक्तिके का एक सुन्दर लेख प्रकाशित हुआहै । इस लेखको अनुमार ऊहापोह करने के बाद मैं इसी निर्णय महत्ता बतलानेके लिये इतना लिखना ही पर्याप्त पर पहुँच सका हूँ कि लेखकमहोदयका निष्कर्ष है कि सम्पादकने उसे प्रकाशित करनेमें अपने ठीक नहीं है, उन्हें अवश्य कुछ भ्रम हुआ है। पत्रका गौरव बतलाया है। गोम्मटसार और श्रीजय- नीचे उनके भ्रमका स्पष्टीकरण किया जाता है। धवलादि सिद्धान्त-प्रन्थों के आधार पर लेखक- सिद्धान्त-प्रन्थों में बतलाया है कि सभी नारकी महोदयने यह सिद्ध करनेका प्रयन किया है कि आर्य और तिर्यश्च नीचगोत्री होते हैं और सभी देव
और म्लेच्छ सब ही कर्ममूमिया मनुष्य उच्चगोत्री उचगोत्री होते हैं । अपने लेखके प्रारम्भमें लेखक. हैं। तथा चारों ही गतियोंका बटवारा ऊँच और महोदयने इस बातका चित्रण बड़े सुन्दर ढङ्गसे नीच दो गोत्रोंमें करते हुए लिखा हैं-'जिस किया है। उसके बाद उन्होंने इस बातके सिद्ध प्रकार सभी नारकी और सभी तिर्यश्च नीच गोत्री करनेका प्रयम किया है कि देवोंके समान मनुष्य भी हैं उसी प्रकार मभी देव और सभी मनुष्य उच्च- सब उच्चगोत्री हो हैं। इस बातका समर्थन करते गांत्री हैं, ऐसा गोम्मटसारमें लिखा है।' लेखक- हुए उन्होंने लिखा है-"गाम्मटमार-कर्मकाण्ड महोदयका विचार है कि अन्तरद्वीपजीको म्लच्छ गाथा नं. १८ में यह बात साफ तौरसे बताई गई मनुष्योंकी कोटिमें शामिल करदेनेस ही मनुष्योंमें है कि नीच-उचगांत्र भवोंके अर्थात् गनियांके आश्रित ऊँच-नीचरूप उभयगांत्रकी कल्पनाका जन्म हुआ है। जिससे यह स्पष्टतया ध्वनित है कि नरकभव है। अन्तरद्वीपजोंके सिवाय सब ही मनुष्य उच्च- और तिर्यश्चभवके सब जीव जिस प्रकार नीचगांत्री गोत्री हैं । इत्यादि, लेखक महादयका केवल हैं, उमी प्रकार देव और मनुष्यभव वाले सब जीव कल्पना ही उनके उक्त मन्तव्योंका आधार होती भी उचगोत्री हैं । यथा-'भवमस्सिय गीचच तो उन्हें व्यक्तिगत विचार समझकर नजरअन्दाज इति गाद ।। तत्वार्थसूत्र प. ८, सू० २५ की किया जासकता था, किन्तु यतः उन्होंने सिद्धान्त- प्रसिद्ध टोकाओंमें - सर्वार्थमिति, राजवार्तिक प्रन्योंका मथन करके उनके वाक्यों के आधार पर और लोकवार्तिकमें-देव और मनुष्य ये दो अपने मन्तव्योंकी सृष्टि की है, अत: एक अभ्यासी गतियां शुभ वा श्रेष्ठ और उच्च बताई हैं और नरक के नाते स्वभावतः मेरी यह जाननेकी रुचि हुई तथा तिर्यक ये दो गतियां अशुभ वा नीच, इमी