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अनेकान्त
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[पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५
श्रद्धा-संयुक्त बुद्धिका नाम है विवेक । भेद इतना सूक्ष्म होजाता है कि जिज्ञासुके
जहाँ श्रद्धा नहीं है वहाँ अधर्म है । उस जगह उसमें खो रहनेकी आशंका है। बुद्धि जीवको बहुत भरमाती है । तरह-तरहकी मुख्य बात श्रात्म-जागृतिकी है। अपने बारेमें इच्छाओंसे मनुष्यको सताती है। और उसके ताबे सोना किसीको नहीं चाहिए। आँख झपकी कि चोर होकर मनुष्य अपने भवचक्रको बढ़ाता ही है। ऐसी भीतर बैठ जायगा। वह चोर भीतर घुसाहो तब बुद्धिका लक्षण है लोकैष्णा। उसीको अधर्मका बाहरी किसी अनुष्ठानको मददसे धर्मको साधना लक्षण भी जानना चाहिए।
भला कैसे हो सकती है। अपनी आत्माको चौकोपुण्यकर्म समझेजानेवाले बहुतसे कृत्योंके दारी इसलिए खूब सावधानीसे करनी चाहिए । जो पीछे भी यह लोकैष्णा अर्थात् सांसारिक महत्वा- अपनेको धोखा देगा उसे फिर कोई गुरु, कोई काँक्षा छिपी रह सकती है। पर वह जहाँ हो वहाँ ।
और कोई मन्दिर भीतर नहीं अधर्मका निवास है। और जहाँ अधर्म है वहाँ पहुँचा सकेगा। अपनेको भूलना और भुलाना धर्मका घात है।
अधर्म है । जागते रहना और जानते रहना ही इस बातको बहुत अच्छी तरह मनमें उतारलेने धर्मकी साधना है। की आवश्यकता है। नहीं तो धर्माधर्मका तात्विक
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/ दीनोंके भगवान !
[ do-रवीन्द्रनाथ ठाकुर ] उस दिन देवताका रथ नगर-परिक्रमा करने वाला था। महादेवीने महाराजसे कहा-- "आइए, रथ-यात्रा देख पाएँ।"
सभी पीछे चल दिए। केवल एक व्यक्ति नहीं आया। वह था शुद्रक, जो झाड़ के लिए. सीके एकत्रित करता था।
सेवकोंके सरदारने दयार्द्र होकर कहा-"तुम भी आसकते हो, शूद्रक !' उसने सिर झुकाकर कहा-"नहीं देव !"
शदककी झोंपड़ीके समीप होकर ही सब रथ-यात्रा देखने जाते थे। जब राजमन्त्रीका हाथी 8 उसके झोपड़े के समीप आया, तो मन्त्रीने पुकारकर कहा-"शूद्रक ! श्रा, रथ-यात्राके समय देवदर्शन करले।"
"राजाभांकी भांति में देवदर्शन नहीं करता स्वामिन् !" उसने उत्तर दिया। "भला, तुझे देवदर्शनका यह सौभाग्य फिर कब प्राप्त होगा?" "जब भगवान् मेरी झोपड़ी के दरवाज़े पर आवेंगे नाथ !"
मन्त्रीने अट्टहास करके कहा-"मूर्ख तेरे द्वारपर भगवान् स्वयं दर्शन देने आवेंगे, और महाराज उनके दर्शनके लिए रथ-यात्रामें सम्मिलित होने जारहे हैं!"
शद्रकने दबी आवाज़से उत्तर दिया--"भगवान्के सिवा और कौन दरिद्रोंके घर आता है स्वामिन् !"
--'प्रकाश' से।