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अधर्म क्या ?
लेखक-श्री जैनेन्द्रकुमारजी ]
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अय प्रश्न कि अधर्म क्या ? जो धर्मका मन्द करता है और स्वयं जड़वत परिणमनका बात करे वह अधर्म।
भागी होता है। लेकिन अधर्म अभावरूप है। वह मतरूप नित्यप्रतिके व्यवहार में जीवकी गति द्वंद्वमयी नहीं है । इमसे अधर्म असत्य है।
देखने में आती है। राग-द्वेष, हर्ष-शोक, रतिइसीसे व्यक्ति के साथ अधर्म है । समझमें तो अरति । जैसे घड़ीका लटकन ( पेड्य लम ) इधर अधर्म जैसा कुछ है ही नहीं। धर्माधर्मका भेद से उधर हिलता रहता है, उस थिरता नहीं है अतः कृत्यमें व्यक्तिकी भावनाओंके कारण होताहे। वैसेही संसारी जोवका चित्त उन द्वंद्वांके सिरोंपर
अधर्म स्व-भाव अथवा सदभाव नहीं है। वह जा-जाकर टकराया करता है। कभी बहद विराग विकारी भाव है । अतएव परभाव है। जैन-दर्शन (अरति ) अाकर घेर लेता है और जुगुप्सा हो ने माना है कि वह जीवकं साथ पुद्गलके अनादि आती है। घड़ीमें कामना ओर लिप्मा ( रति) मम्बन्धके कारण सम्भव होता है । पर वह सम्बन्ध जागजाती है । इस छन इमसे राग, तो दूसरे पल अनादि होनेके कारण अनन्त नहीं है । वह सान्त दूसरेसे उत्कट द्वेषका अनुभव होता है। ऐसही
हाल खुशी और हाल दुखी वह जीव मालूम होताहै। जीवके साथ पुद्गलकी जड़ताका अन्त करने अधर्म इम द्वंदको पैदा करनेवाला और बढ़ाने वाला, अर्थात मुक्तिको ममीप लानेवाला इस वाला है। द्वंद्वही नाम क्लेशका है। भाँति जबकि धर्म हुआ, तब उस बन्धनको धर्मका लक्ष्य कैवल्य स्थिति है। वहाँ माम्य बढ़ानेवाला और मुक्तिको हटानेवाला अधर्म भाव है। वहाँ मन और चिनके अतिरिक्त कुछ कहलाया।
नहीं है । विकल्प, संशय, द्वंद्वका यहाँ सर्वथा नाश धर्म इस तरह स्व-पर और मदमद्विवेक स्वरूप है। उसीको कहो मच्चिदानन्द। है। अधर्मका स्वरूप संशय है। उसमें जड़ और अधर्मका वाहन है विकल्प प्रम्न बुद्धि । चैतन्यके मध्य विवेककी हानि है। उसमें जड़में ममता, मोह, मायामें पड़ी मानव-मति । और जड़तामें भी व्यक्ति ममत्व और अाग्रह रखता उसका छुटकारका उपाय है श्रद्धा । बुद्धि जब दीम्बता है। जड़को अपनामानता है, उममें अपना- विकल्प रचती है नो श्रद्धा उमीके मध्य मंकल्प पन आरोपना है और इस पद्धनिसे प्रात्म-ज्योतिको जगा देती है।