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अनेकान्त
आचार्यश्रीजीको "जिन शासन-प्रणेता” जैसी उगांध विभूषित करें तो भी अपेक्षा विशेषसे यह अत्युक्तिपूर्ण नहीं समझा जाना चाहिये ।
जयसिंह के अन्य संस्मरण
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कहा जाता है कि कुछ द्वेषी ब्राह्मणोंने राजा और आचार्यश्री के परस्पर में फूट उत्पन्न करानेका प्रबल प्रयत्न किया । किन्तु वे असफल रहे । ब्राह्मणोंने राजा से कहा कि हे राजन् ! महर्षि वेद व्यास कृत महाभारत में तो लिख़ा है कि पांडव शैवदीक्षासे दीक्षित होकर हिमालय गये थे । और आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि जैन-दीक्षा ग्रहण करके वे मोक्ष में गये हैं। यह परम्पर विरोधी बात कैसी ? आचार्यश्रीने तत्काल उत्तर दिया कि जैन पांडव और थे एवं महाभारतीय पांडव दूसरे थे । विभिन्न काल में अनेक पांडव होगये हैं। इसका प्रमाण महाभारत में इस प्रकार है: -- अत्र भीष्मशतं दग्धं. पाँडवानाम् शतत्रयम् । द्रोणाचार्य सहस्र तु. कर्णसंख्या न विद्यते ॥
इस प्रकार महाभारतीय प्रमाण पर वे सब ब्राह्मण पण्डित लज्जित हुए और क्षमा मांगी। एकबार राजा ने आचार्यश्री से प्रश्न पूछा कि महाराज संसार में सत्य धर्म कौनसा है ? महाराजने उत्तर दिया किः-तिरोधीयत दर्भादिभिर्यथा दिव्यं तदौषधम् । तथाऽमुष्मन् युगे सत्यो धर्मो धर्मान्तरे नृप ॥ परं समय धर्माण। सेवनात् कस्यचित् क्वचित् । जायते शुद्धधर्माप्तिः दर्भच्छन्नोवधाप्तिवत् ॥
अर्थात् - हे राजन् ! जिस प्रकार दिव्य औषधि दर्भ आदि घासमें ढँकी रहती है। वैसे ही इस युग में भी सत्य धर्म अन्य धर्मोंसे ढँका हुआ है । किन्तु जिस प्रकार सब घासका अनुसंधान करनेसे दिव्य औषधि मिल जाती है। वैसे ही सब धर्मोका अध्ययन, मनन
[ फाल्गुण, वीर - निर्वाण सं० २४६५
और परिचयसे वास्तविक धर्म की भी प्राप्ति हो जाती है । अतः सब धर्मोका अध्ययन परिचयादि करना चाहिये । राजा आचार्यश्री के मुखसे धर्म- गवेषणाके लिये इस प्रकार के निष्पक्षपात वाले सुन्दर विचार सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। राजा आचार्यश्री के इसी प्रकार के अन्य आदर्श विचारों और भाव- पूर्ण व्याख्यानोंसे प्रभावान्वित होकर पूरी तरहसे जैन धर्मानुरागी हो गया था । सिद्धराजने महाराज साहब के साथ विशाल संघको लेकर सोमनाथ, गिरनार और शत्रु जय आदि जैसे स्थानोंकी तीर्थ-यात्रा भी की थी। आचार्य हमचन्द्र के विचारोंसे पता चलता है कि वे सर्व धर्म समभाव वाले, उदार और निष्पक्षपाती मनस्वी महा-पुरुष थे । यही कारण है कि वे सोमनाथ जैन अजैन मन्दिर में भी राजा के साथ गये और मधुर - कण्ठमे उदार दृष्टि- पूर्वक इस प्रकार स्तुति कीः
यत्र तत्र समये यथा तथा;
योऽसि सोऽसि अभिधया यया तया । वीतदोष कलुषः सचेत् भवान् : एक एव भगवन् ! नमोऽस्तु तं ॥ भव बीजांकुर जनना;
रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वाः नमस्तस्मै ॥ इत्यादि इत्यादि ॥
सिद्धराज जयसिंहने एक " रामबिहार" नामक जैन मन्दिर पाटण में और दूसरा २४ जिन प्रतिमावाला “सिद्ध विहार" नामक जैन मन्दिर सिद्धपुर में बनाया था। राजा शैव होता हुआ भी पूरी तरहसे जैन-धर्मानुरागी और आचार्य हेमचन्द्रका परम भक्त एवं अनन्य श्रद्धालु बन गया था । सिद्धराजने विक्रम ११५१ से ११९९ तक राज्य किया और ११९९ में देवगतिको प्राप्त हुआ ।